द्विध्रुवीय विकृति : प्रकार, लक्षण, हैतुकी (कारण) और उपचार

द्विध्रुवीय विकृति वैसी विकृति को कहा जाता है जिसमें रोगी में बारी-बारी से विषाद तथा उन्माद दोनों ही तरह की अवस्थाएं होती पायी जाती है यही कारण है कि इसे उन्मादी-विषादी विकृति भी कहा जाता है।

विषाद या विषादी अवस्था

विषाद से तात्पर्य मनोदशा में उत्पन्न उदासी से होता है। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें व्यक्ति उदास एवं सभी तरह के क्रियाओं में रुचि या आनन्द खो चुका होता है इसके अतिरिक्त व्यक्ति में थकान, नींद में बदलाव(कम या ज्यादा), भूख में बदलाव, ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई, आत्म सम्मान में कमी तथा आत्मघाती विचार जैसे लक्षण पाये जाते हैं।


उन्माद या उन्मादी घटना

उन्माद एक ऐसी अवस्था है जिसमें व्यक्ति का मनोदशा अत्यधिक उत्तेजित, ऊर्जावान एवं चिड़चिड़ा हो जाता है। यह इतना तीव्र होता है कि इससे व्यक्ति का व्यवहार असामान्य तथा खतरनाक हो जाता है। यह व्यक्ति के सामाजिक एवं व्यवसायिक कार्यों को बहुत अधिक बाधित करता है। यह गंभीर होता है इसलिए रोगी को अस्पताल में भर्ती करके इसका उपचार किया जाता है।

DSM IV (TR) में उन्माद के निम्नांकित लक्षण बतलाये गये हैं —
1. एक सप्ताह तक रोगी की मनोदशा काफी बढ़ा चढ़ा एवं चिड़चिड़ा बना हुआ हो।
2. मनोदशा क्षुब्धता की अवधि में निम्नांकित में से तीन या उससे अधिक लक्षण व्यक्ति में उपस्थित हो (यदि मनोदशा में सिर्फ चिड़चिड़ापन हो तो चार लक्षण अवश्य उपस्थित हो)—
  • बढ़ा हुआ आत्म सम्मान
  • नींद में कमी 
  • पहले की तुलना में अधिक बातूनी होना
  • विचारों में उड़ान होना 
  • ध्यान भंगता
  • मनोपेशीय क्रियाओं में वृध्दि होना
  • ऐसे कार्यों में सम्मिलित होना जो आनन्ददायक तो हो परन्तु उनसे दर्दनाक परिणामों की उच्च संभावना हो
3. उक्त लक्षण ऐसे हों जो व्यक्ति के सामाजिक एवं व्यवसायिक समायोजन में बाधा डालता हो।
4. उक्त लक्षण का कारण कोई द्रव्य का प्रभाव न हो।


अल्प उन्माद या अल्पोन्मादी घटना 

इसमें व्यक्ति एक खास अवधि तक उत्तेजित, ऊर्जावान एवं चिड़चिड़े मनोदशा का अनुभव करता है यह उन्माद का हल्का रूप होता है। इससे व्यक्ति के व्यक्तिगत एवं व्यवसायिक कार्यों में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती है। यह कम गंभीर होता है इसलिए इसमें रोगी को अस्पताल में भर्ती करके उपचार करने की आवश्यकता नहीं होती है।


द्विध्रुवीय विकृति के प्रकार 

DSM IV (TR) में द्विध्रुवीय विकृति के निम्नांकित तीन प्रकार बतलाये गये हैं —

1. साइक्लोथाइमिक विकृति 

यह एक ऐसी मनोदशा क्षुब्धता की अवस्था है जिसमें लम्बे समय अर्थात कम से कम दो वर्षों तक विषाद और अल्प उन्माद के लक्षण अवश्य दिखते हैं। इसमें विषाद एवं अल्पोन्माद दोनों के लक्षण पाये जाते हैं परंतु यह विकृति ज्यादा गंभीर नहीं होती है।

DSM IV (TR) में इस विकृति की चार कसौटियां बतलायी गयी हैं—
  1. व्यक्ति में कम से कम दो साल की अवधि में कई बार अल्प उन्माद (हाइपोमेनिया) और विषाद (डिप्रेशन) के लक्षण दिखाई दें।
  2. दो साल में दो महीने से ज्यादा समय बिना लक्षणों के नहीं  बीते हों।
  3. रोगी को गंभीर विषाद (मेजर डिप्रेसिव डिसाॅर्डर) का अनुभव हुआ हो।
  4. पहले दो साल में उन्मादी घटना का अनुभव न हुआ हो।
इस विकृति की शुरुआत किशोरावस्था या आरंभिक वयस्कावस्था में होती है साइक्लोथाइमिक विकृति के कुछ रोगी आगे चलकर द्विध्रुवीय विकृति से ग्रसित हो जाते हैं।

2. द्विध्रुवीय एक विकृति

इस विकृति में रोगी को एक या एक से अधिक उन्मादी तथा विषादी अवस्था का अनुभव हुआ होता है।
बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो एक या एक से अधिक उन्मादी घटना का अनुभव तो किए होते हैं परन्तु उन्हें कोई भी विषादी घटना का अनुभव नहीं होता है। इसके बावजूद भी उन्हें द्विध्रुवीय एक विकृति का रोगी माना जाता है क्योंकि ऐसा उम्मीद किया जाता है कि उन्हें कभी न कभी विषाद का अनुभव अवश्य होगा।

इन रोगियों में उन्मादी तथा विषादी घटना बारी-बारी से होती है परन्तु कुछ ऐसे भी रोगी होते हैं जिनमें एक ही दिन में उन्मादी एवं विषादी दोनों तरह के लक्षण दिखते हैं।

3. द्विध्रुवीय दो विकृति

द्विध्रुवीय दो विकृति में DSM IV के अनुसार तीन प्रमुख लक्षण होते हैं —
  1. रोगी को एक या एक से अधिक बड़ा विषादी घटना का अनुभव हुआ हो।
  2. रोगी को कम से कम एक अल्प उन्मादी घटना का अनुभव हुआ हो।
  3. रोगी को उन्मादी घटना की अनुभूति नहीं हुई हो।
इस विकृति की शुरुआत 15 से 44 वर्ष की उम्र में होती है तथा पहली घटना उन्मादी या विषादी में से कुछ भी हो सकता है। इसमें उन्मादी घटना का औसत समय 2 से 3 महीनों का होता है परन्तु विषादी घटना का औसत समय इससे थोड़ा बड़ा होता है। इस विकृति में दोनों घटनाएं कम गंभीर एवं लघु अवधि के लिए होते हैं।
यदि किसी व्यक्ति को एक साल में चार या इससे अधिक बार मनोदशा क्षुब्धता होती है तो फिर चाहे द्विध्रुवीय एक विकृति हो या दो। इसे एक नये नाम द्रुत चक्र (rapid cycling) से जाना जाता है।

यदि रोगी का मनोदशा मौसम के प्रारंभ होने के साथ परिवर्तित होता है (जैसे अत्यधिक ठंड का मौसम या गर्मी का मौसम प्रांरभ होने के साथ) तो उसे सामाजिक या मौसमी भावात्मक विकृति (Seasonal Affective Disorder or SAD) का नाम दिया जाता है। 
द्विध्रुवीय एक विकृति, द्विध्रुवीय दो विकृति से अधिक सामान्य होता है द्विध्रुवीय दो विकृति पुरुषों की तुलना में महिलाओं में अधिक पायी जाती है।

द्विध्रुवीय एक विकृति तथा द्विध्रुवीय दो विकृति में मुख्य अंतर यह है कि द्विध्रुवीय दो विकृति में उन्मादी व्यवहार की गंभीरता द्विध्रुवीय एक विकृति के उन्मादी व्यवहार से कम होती है।
 

उदाहरण 

डेब्बी एक 21 वर्षीय अविवाहित महिला थी जिसको उन्मादी घटना का अनुभव करने पर मानसिक अस्पताल में भर्ती कराया गया था। जब वह कॉलेज में थी तो उसे विषादी अनुभव के लिए मनश्चिकित्सा दी गई थी उसे कालेज के बाद एक स्थानीय समाचार पत्र में नौकरी मिल गयी थी। मानसिक अस्पताल में भर्ती होने से पहले उसे उन्मादी दौरा पड़ा था इसके बाद डेब्बी अचानक अपनी नौकरी से त्यागपत्र देकर अपने पुरुष मित्र के पास चली गई। बिना किसी वैकल्पिक रोजगार के नौकरी से त्यागपत्र देना यह उसका पहला घटिया निर्णय था। उसे नींद की शिकायत होने लगी और मनोदशा काफी चिड़चिड़ा हो गया। अपने मित्र से कहा-सुनी करने के बाद, वह घर लौटी और माता-पिता से लगातार झगड़ने लगी। एक दिन वह टेनिस क्लब जाते समय दो अजनबियों के साथ पार्टी में चली गई। जहाँ उसने रातभर रहकर तीन अजनबियों के साथ यौन संबंध बनाए। घर वापस आकर वह फिर पिता से झगड़ गयी। इसलिए उसके पिता को सहायता के लिए पुलिस बुलानी पड़ी। जिसके बाद पुलिस उसे मनोरोग विशेषज्ञ के पास ले गयी। विशेषज्ञ ने उसकी असंगत और उग्र मनोदशा को देखकर अस्पताल में भर्ती करने का सलाह दिया। अस्पताल में डेब्बी सामान्य रूप से बात तो करती थी लेकिन उसके विचारों में बड़प्पन था और वह पुरुष रोगियों के साथ अत्यधिक निकटता दिखाती थी।
इस केस अध्ययन से पता चलता है कि डेब्बी द्विध्रुवीय एक विकृति से पीड़ित थी जिसमें स्कूल में विषाद और कॉलेज तथा नौकरी के दौरान उन्मादी घटनाएँ हुईं।

द्विध्रुवीय विकृति के कारण


1. न्यूरोट्रांसमीटर

न्यूरोट्रांसमीटर जैसे नोरपाइनफ्राइन (norepinephrine) की मात्रा अधिक होने से व्यक्ति में उन्मादी अवस्था तथा निम्न स्तर होने पर विषादी अवस्था उत्पन्न होती है। 
जबकि एक दूसरे न्यूरोट्रांसमीटर सेरोटोनिन (serotonin) के साथ नोरपाइनफ्राइन का स्तर निम्न होता है तो इससे रोगी में विषाद उत्पन्न होता है इसके विपरित जब सेरोटोनिन का स्तर कम और नोरपाइनफ्राइन का स्तर उच्च होता है तो इससे उन्मादी अवस्था उत्पन्न होती है।

न्यूरोट्रांसमीटर

2. सोडियम आयन क्रिया

जब सोडियम आयन का संचरण न्यूरान्स झिल्ली में ठीक ढंग से होता है तो इससे न्यूरान न तो जरूरत से ज्यादा किसी उद्दीपक से उत्तेजित होता है और न उसके प्रति प्रतिरोध दिखलाता है। यदि इस अवस्था में कोई असामान्यता होती है तो व्यक्ति में उन्माद उत्पन्न हो जाता है।

सोडियम आयन क्रिया

दूसरी ओर यदि सोडियम आयन का संचरण न्यूरान झिल्ली में ठीक ढंग से नहीं होता है। तो न्यूरान बहुत आसानी से उत्तेजित हो जाता है या फिर बहुत मुश्किल से उत्तेजित होता है। यदि इस अवस्था में कोई असामान्यता होती है तो इससे व्यक्ति में विषाद उत्पन्न होता है।


3. जननिक कारक

कुछ अध्ययनों से पता चला है कि द्विध्रुवीय विकृति का कारण आनुवांशिकता होता है।

जिन लोगों के माता-पिता या सगे संबंधियों में द्विध्रुवीय विकृति पहले हो चुका होता है उनमें यह रोग होने की संभावना अधिक होती है।

जननिक कारक

एकांडी जुडवा बच्चों में से यदि किसी एक व्यक्ति को द्विध्रुवीय विकृति हो जाता है तो युग्म के दूसरे व्यक्ति को भी यह रोग होने की संभावना अधिक होती है जबकि भ्रातीय जुडवा व्यक्तियों में ऐसी संभावना बहुत कम होती है।

4. तनाव

अध्ययनों से पता चला है कि द्विध्रुवीय विकृति का कारण तनाव भी होता है ऐसे व्यक्ति जिनमें पहले यह रोग हो चुका होता है ऐसे व्यक्तियों में तनावपूर्ण घटनाएं उन्मादी अवस्था उत्पन्न कर देती है। यहां तक कि विषादी या उन्मादी रोगियों के साथ रहना भी तनावपूर्ण होता है जिससे सामान्य व्यक्तियों में भी द्विध्रुवीय विकृति होने की संभावना अधिक होती है।

द्विध्रुवीय विकृति का उपचार


1. लिथियम चिकित्सा

इस चिकित्सा में चिकित्सक रोगी को उचित मात्रा में लिथियम नामक औषध लेने की सलाह देते हैं। लिथियम एक औषध होता है जो न्यूरोन के संधिस्थल (synapse) के क्रियाओं में परिवर्तन लाकर नोरपाइनफ्राइन तथा सेरोटोनिन जैसे न्यूरोट्रांसमीटर का स्राव करता है। जिससे द्विध्रुवीय विकृति के उन्मादी तथा विषादी दोनों अवस्थाओं में सुधार होता पाया जाता है।

लिथियम चिकित्सा

2. योजन मनश्चिकित्सा

लिथियम अकेले द्विध्रुवीय विकार के उपचार के लिए पूरी तरह प्रभावी नहीं है। 30 से 40% रोगियों में लिथियम से लाभ नहीं होता है या लक्षण फिर से लौट आते हैं। करीब 50% रोगी ऐसे होते हैं जो सही मात्रा में लिथियम नहीं लेते हैं और कुछ बीच में ही छोड़ देते हैं। तथा कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें चिकित्सकों द्वारा ही गलत मात्रा में खाने की सलाह दी जाती है। इन समस्याओं को हल करने के लिए मनश्चिकित्सकों ने लिथियम औषध को मनोचिकित्सा के साथ प्रयोग करने का सलाह दिया, जिसे योजन मनश्चिकित्सा कहते हैं।

योजन चिकित्सा

द्विध्रुवीय विकृति के रोगियों को लिथियम औषध के साथ विभिन्न तरह की मनोचिकित्सा (जैसे वैयक्तिक, सामूहिक तथा पारिवारिक चिकित्सा के रूप में) दी जाती है। 
इस चिकित्सा से रोगी के पारिवारिक तथा सामाजिक संबंधों,  शिक्षा और समस्या समाधान के तरीके को बेहतर बनाया जाता है। जिससे रोगी में आत्मविश्वास उत्पन्न होता है और वे जल्दी ठीक हो जाते हैं।

चिंता से उत्पन्न मानसिक विकृतियाॅं: चिंता विकृति, कायप्रारूप विकृति तथा मनोविच्छेदी विकृति

असामान्य मनोविज्ञान में चिंता एवं उससे उत्पन्न मानसिक विकृतियों पर सर्वाधिक ध्यान दिया गया है। 
चिंता से तात्पर्य डर एवं आशंका के दुखद भाव से होता है इस तरह के चिंता से कई तरह की मानसिक विकृतियों‌ की उत्पत्ति होती है जिसे पहले एक सामान्य नैदानिक श्रेणी में अर्थात स्नायुविकृति (neurosis) या मनोस्नायुविकृति (psychoneurosis) में रखा गया था।
चिंता और चिंता से उत्पन्न मानसिक विकृतियां
स्नायुविकृति पद का प्रयोग सबसे पहले अंग्रेज वैज्ञानिक विलियम कूलेन द्वारा स्नायुमंडल के विकृत संवेदनों के लिए सन् 1769 में प्रकाशित किताब System of Nosology में किया गया था।

बाद में फ्रायड तथा उनके सहयोगियों ने स्नायु विकृति का उपयोग चिंता से उत्पन्न मानसिक रोगों के लिए किया।
स्नायुविकृति में कई तरह के मानसिक विकृतियों को रखा गया था जिसमें चिंता स्नायुविकृति, दुर्भीती स्नायुविकृति,  रुपांतर स्नायुविकृति, रोगभ्रम स्नायुविकृति, मनोग्रस्तता बाध्यता स्नायुविकृति आदि को रखा गया था।
इन सबके अलग अलग लक्षण या नैदानिक स्वरूप होने के कारण स्नायु विकृति जैसे नैदानिक श्रेणी को अमान्य घोषित कर दिया गया। और DSM IV (TR) में स्नायु विकृति जैसी पुरानी श्रेणी को तीन नये प्रमुख भागों में बांट दिया गया।
  1. Anxiety Disorder 
  2. Somatoform Disorder
  3. Dissociative Disorder 

Anxiety desorder (चिंता विकृति)

DSM IV (TR) में चिंता विकृति से तात्पर्य वैसे विकृति से होता है जिसमें रोगी में अवास्तविक चिंता एवं अतार्किक डर की मात्रा इतनी अधिक होती है कि उससे उसका सामान्य जिंदगी का व्यवहार अपनुकुलित हो जाता है तथा इसमें व्यक्ति अपने चिंता की अभिव्यक्ति बिल्कुल ही स्पष्ट रूप से करता है।

DSM IV (TR) में चिंता विकृति के निम्नांकित छः प्रमुख प्रकार बतलाये गये हैं -
इन सभी विकृतियों के बारे में विस्तार से जानने के लिए इस पर क्लिक करें।

Somatoform Desorder (कायप्रारूप विकृति)

इस विकृति में व्यक्ति को दैहिक या कायिक समस्याएं होती हैं लेकिन उन समस्याओं या लक्षणों का कोई दैहिक या कायिक कारण नहीं होता है परन्तु व्यक्ति को ऐसा विश्वास होता है कि उनकी समस्याएं वास्तविक तथा गंभीर हैंं।

पांच कसौटियों के आधार पर यह कहा जा सकता है व्यक्ति में कायप्रारूप विकृति है या नहीं।
  1. व्यक्ति में बहरापन या पक्षाघात के लक्षण उपस्थित हों।
  2. व्यक्ति में बहरापन या पक्षाघात के लक्षण मस्तिष्कीय क्षति के कारण उत्पन्न न हुए हों।
  3. व्यक्ति के दैहिक लक्षण मनोवैज्ञानिक कारकों से संबंधित हों।
  4. व्यक्ति को अपनी दैहिक लक्षणों के प्रति कोई विशेष चिंता नहीं हो।
  5. व्यक्ति द्वारा दिखलाया गया चिंता उसके ऐच्छिक नियंत्रण के बाहर हो।

कायप्रारूप विकृति के मुख्य पांच प्रकार बतलाये गये हैं -
  1. Body Dysmorphic Disorder
  2. Hypochondriasis
  3. Somatization Disorder
  4. Somatoform Pain Disorder
  5. Conversion Disorder or conversion hysteria 
इन विकृतियों के बारे में विस्तार से जानने के लिए इस लिंक (https://www.eduarmy.in/somatoform-disorder-type-symptoms-causes-treatment.html) पर क्लिक करें।


Dissociative Disorder (मनोविच्छेदी विकृति)

मनोविच्छेदी विकृति एक सामान्य मानसिक रोग है जिसमें व्यक्ति की स्मृति या चेतना विच्छेदित हो जाती है। अर्थात स्मृति का कुछ क्षेत्र चेतन से विच्छेदित होकर अलग हो जाता है जिससे व्यक्ति खुद को और अपने वातावरण को अलग तरीके से प्रत्यक्षण करने लगता है। इस दौरान उसे पांच तरह की मुख्य अनुभूतियां हो सकती हैं -

1. स्मृतिलोप (amensia)
स्मृतिलोप में रोगी अपने पूर्व अनुभूतियों का आंशिक या पूर्ण रूप से प्रत्याह्नान (recall) करने में असमर्थ रहता है।

2. व्यक्तित्वलोप (depersonalization)
इसमें रोगी अपने आप से असम्बद्ध (datached) महसूस करता है। रोगी को ऐसा महसूस होता है कि वह कोई धारा में बह रहा है या वह अपने ही गतिविधियों से बाहर से खड़ा होकर देख रहा है।

3. वास्तविकता लोप (derealization)
इसमें रोगी को पूरा वातावरण ही अवास्तविक एवं अविश्वसनीय लगता है।
4. पहचान संभ्राति (identity confusion)
इसमें रोगी को अपने बारे में यह संभ्राति (confusion) उत्पन्न होती है कि वह कौन है, क्या है आदि-आदि।
5. पहचान बदलाव (identity alteration)
इसमें रोगी कभी-कभी कुछ आश्चर्य उत्पन्न करने वाले कौशलों से अपने को लैश पाता है। रोगी को आश्चर्य इसलिए होता है कि उसे पता भी नहीं रहता है कि उसमें ऐसा कौशल है। जैसे सम्भव है कभी-कभी रोगी विदेशी भाषा के कुछ ऐसे शब्दों का उपयोग करके अपने सम्भाषण को आकर्षक बना देता है और उसे आश्चर्य होने लगता है।

मनोविच्छेदी विकृति के प्रकार

मनोविच्छेदी विकृति के कई प्रकार बतलाये गये हैं जिनमें निम्नांकित चार प्रमुख हैं-
  1. Dissociative amensia
  2. Dissociative fugue
  3. Dissociative Indentity disorder (DID)
  4. Depersonalization disorder
इनके बारे में विस्तार से जानने के लिए इस लिंक (https://www.eduarmy.in/dissociative-disorder-types.html) पर क्लिक करें।

कायप्रारुप विकृति: प्रकार, लक्षण, कारण और उपचार (बी० ए० द्वितीय वर्ष)


प्रथम चार विकृतियों की व्यापकता कम होने के कारण इनको संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत किया जाएगा।

शरीर दुष्क्रिया आकृति विकृति (Body dysmorphic disorder)

इस विकृति में व्यक्ति को अपने चेहरे पर कुछ काल्पनिक दोष उत्पन्न होने की आशंका होती है। जैसे सम्भव है कि व्यक्ति को यह विश्वास हो जाए कि उसकी नाक का आकार दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है या उसके ऊपरी होंठ ऊपर की दिशा में तथा निचला होंठ नीचे की दिशा में लटकता जा रहा है। इस तरह के कल्पित दोष से व्यक्ति इतना चिंतित रहता है कि उसमें समायोजन संबंधी समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं।
कायप्रारुप विकृति: प्रकार, लक्षण, कारण और उपचार
इस विकृति के रोगी बहुत कम देखने को मिलते हैं जापान और कोरिया में इस विकृति को सामाजिक दुर्भीति के एक प्रकार के रूप में समझा जाता है।

रोगभ्रम (Hypochondriasis)

इस विकृति में रोगी अपने स्वास्थ्य के बारे में जरूरत से ज्यादा सोचता है तथा उसके बारे में चिंतित रहता है। उसके मन में अक्सर यह बात बनी रहती है कि उसे कोई न कोई शारीरिक बिमारी हो गयी है और उसकी यह चिंता इतनी अधिक हो जाती है कि वह दिन प्रतिदिन के जिदंगी के साथ समायोजन करने में असमर्थ रहता है।
DSM IV (TR) के अनुसार इस तरह की चिंता व्यक्ति में कम से कम छः महीने तक बने रहने पर ही उसे रोगभ्रम की श्रेणी में रखा जा सकता है।
जब ऐसे रोगियों से उनके लक्षण के बारे में विस्तृत रूप से पूछा जाता है तो वे उसका सही-सही वर्णन करने में असमर्थ रहते हैं। जब मेडिकल परिक्षण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनकी आशंकाएं निराधार है और वे शारीरिक रूप से स्वस्थ हैं तो भी उन्हें यह विश्वास नहीं होता कि उनमें कोई रोग नहीं है बल्कि वह मेडिकल परीक्षण में कुछ कमी रह जाने की बात करते हैं।
यह रोग पुरूषों और महिलाओं में समान रूप से होता है।

कायिक विकृति (Somatization disorder)

इस विकृति में व्यक्ति को कई प्रकार की शारीरिक समस्याएं होती हैं जबकि वह शारीरिक या दैहिक रूप से स्वस्थ रहता है इस विकृति के रोगी में कम से कम आठ तरह के लक्षण निश्चित रूप से होते हैं।

चार तरह के दर्द के लक्षण (4)
सिरदर्द, पेट दर्द, पीठ दर्द, छाती दर्द, पेशाब करने के दौरान दर्द, मासिक धर्म के दौरान दर्द तथा लैंगिक क्रिया के दौरान दर्द आदि में से चार लक्षण रोगी में होने चाहिए।

दो आमाशयांत्र लक्षण (2)
व्यक्ति को मिचली, कै, डायरिया, पेट फूलना आदि में से कम से कम दो अवश्य हुआ हो।

एक लैंगिक लक्षण (1)
लैंगिक तटस्थता, स्खलन समस्याएं, अनियमित मासिक स्राव, मासिक स्राव में अत्यधिक रक्त निकलना आदि में से कम से कम एक अवश्य हुआ हो।

एक कूटस्नायविक लक्षण  (1)
अंधापन, द्विदृष्टि, बहरापन, स्पर्श संवेदन की कमी, विभ्रम, पक्षाघात, कंठ में दर्द या खाते समय निगलने में कठिनाई, पेशाब करने में कठिनाई आदि कूट स्नायविक लक्षण में से कम से कम एक अवश्य होना चाहिए।

इस विकृति की शुरुआत किशोरावस्था में होती है तथा DSM IV (TR) के अनुसार इसकी शुरुआत निश्चित रूप से 30 साल के उम्र से पहले होती है। इस विकृति को (Briquet's Syndrome) भी कहा जाता है क्योंकि इस तरह के विकृति पर सबसे पहले फ्रेंच मनश्चिकित्सक (Pierre Briquet) का ध्यान गया था और उन्होंने इसका सबसे पहले वैज्ञानिक अध्ययन किया था।

कायप्रारुप दर्द विकृति (Somatoform pain disorder or Psychalgia)

इस विकृति में व्यक्ति गंभीर और स्थायी तौर पर दर्द का अनुभव करता है जबकि इस तरह के दर्द का कोई दैहिक या शारीरिक कारण नहीं होता है। तथा इस तरह का दर्द प्रायः ह्रदय या अन्य महत्वपूर्ण अंगो से संबंधित होता है।
मेडिकल जांच में ऐसे रोगियों के दर्द का कोई भी स्पष्ट आधार या विकृति नहीं मिलती है। सामान्यतः इस तरह के दर्द की उत्पत्ति का संबंध किसी प्रकार के मानसिक संघर्ष या तनाव से होता है।

रूपांतर हिस्टीरिया (Conversion histeria)

कायप्रारूप विकृति में सबसे सामान्य एवं प्रबल विकृति रूपांतर विकृति है जिसे पहले हिस्टीरिया के नाम से जाना जाता था। इस विकृति के लिए फ्रायड ने सबसे पहले रुपांतर शब्द का प्रयोग किया था उनका विचार था कि इस रोग में व्यक्ति की दमित इच्छाएं संवेदी और पेशीय लक्षणों में बदलकर उनके कार्यों को अवरूद्ध कर देती हैं।

रूपांतर विकृति वैसी विकृति है जिसमें व्यक्ति के तनाव और मानसिक संघर्ष की अभिव्यक्ति कुछ दैहिक लक्षणों के रूप में होती है और ऐसे दैहिक लक्षणों का कोई दैहिक आधार नहीं होता है।
जैसे एक व्यक्ति को हस्तमैथुन की बुरी आदत थी इससे उसमें चिंता और तनाव हमेशा बनी रहती थी अचानक एक दिन उसे यह अनुभव होने लगा कि उसका हाथ ही नहीं उठ रहा है क्योंकि उसके हाथ में पक्षाघात हो गया है मेडिकल जांच में पक्षाघात के कोई दैहिक सबूत नहीं पाये गये।

स्पष्ट है यहां व्यक्ति अपने तनाव और मानसिक संघर्ष की अभिव्यक्ति दैहिक लक्षण (पक्षाघात) के रुप में कर रहा है।

रूपातंर हिस्टीरिया के लक्षण

रूपांतर हिस्टीरिया के नैदानिक स्वरूप को समझने के लिए उसके इसके लक्षणों को निम्नांकित दो भागों में बांटा गया है
  • संवेदी लक्षण
इस रोग के रोगी के संवेदी अंगों (ज्ञानेन्द्रिय) के कार्यों में कुछ विकृति आ जाती है इसे ही संवेदी लक्षण कहा जाता है। रुपांतरित हिस्टिरिया के प्रमुख संवेदी लक्षण निम्नांकित हैं -
  1. Anesthesia - इसमें रोगी को किसी प्रकार की कोई संवेदना नहीं होती है अर्थात संवेदन शून्य हो जाता है।
  2. Hypesthesia - इसमें रोगी को अपने शरीर के किसी हिस्से में संवेदना थोड़ी कम हो जाती है लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं होती है।
  3. Hyperaesthesia - इसमें मरीज को अपने शरीर में जरूरत से ज्यादा संवेदनशीलता महसूस होती है यानी छोटी-छोटी चीजें भी बहुत ज्यादा महसूस होती हैं।
  4. Analgesia - इसमें रोगी को दर्द का बिल्कुल भी अहसास नहीं होता है।
  5. Paresthesia - इसमें रोगी असाधारण संवेदन जैसे किसी प्रकार की घंटी सुनने की संवेदना का अनुभव करता है।
इस बीमारी में मरीज को देखने (दृष्टि) और सुनने (श्रवण) से जुड़ी समस्याएं भी हो सकती हैं-
दृष्टि संबंधी लक्षण- धुंधला दिखना, रोशनी से परेशानी, दो-दो चीजें दिखना, एक आंख से कम दिखना या पढ़ते समय अक्षर आपस में मिल जाना।
श्रवण संबंधी लक्षण- आंशिक या पूरा बहरापन, कानों में अस्पष्ट आवाजें या गूंज सुनाई देना और कभी-कभी भगवान या किसी अलौकिक शक्ति की आवाज सुनने का अहसास होना।

  • पेशीय लक्षण 
  1. Paralysis - इसमें व्यक्ति के किसी एक हाथ या पैर में पक्षाघात हो जाता है‌ जिससे उस अंग से जुड़ा काम रुक जाता है। कभी-कभी यह पक्षाघात सिर्फ किसी खास काम तक सीमित रहता है। उदाहरण के तौर पर हो सकता है कि खाना खाते वक्त हाथ न चले। लेकिन लिखने, बंदूक चलाने या कोई वाद्ययंत्र बजाने जैसे कामों में हाथ बिल्कुल ठीक काम करे।
  2. Tremors & twiches - पक्षाघात के अलावा काँपना, मांसपेशियों में सिकुड़न या चलते-फिरते वक्त झटके लगना भी आम लक्षण हैं।
  3. Astasia abasia - इसमें व्यक्ति बैठे या लेटे होने पर अपने पैरों को ठीक से नियंत्रित कर सकता है लेकिन खड़े होने या चलने पर पैर सही से काम नहीं करते हैं । जिससे चलते वक्त लड़खड़ाहट होती है।
  4. Aphonia - इसमें रोगी बहुत धीमी आवाज या फुसफुसाहट की आवाज में ही बोल पाता है।
  5. Mutism - इसमें रोगी बिल्कुल बोल नहीं पाता है।
  6. Hysterical convulsion - कभी-कभी रोगी को हिस्टीरिकल ऐंठन भी होता है जो मिर्गी के दौरे जैसा लगता है। इसमें रोगी मूर्च्छा की स्थिति में चला जाता है।

रूपांतर हिस्टीरिया का निदान

  1. व्यक्ति में एक या  एक से अधिक ऐसी समस्या हो जो पेशीय  या संवेदी  कार्यों को प्रभावित करे । और ऐसा लगे जैसे यह कोई न्यूरोलॉजिकल (मस्तिष्क से जुड़ी) बीमारी हो।
  2. व्यक्ति में लक्षण मनोवैज्ञानिक कारकों से उत्पन्न हुआ हो।
  3. लक्षण व्यक्ति ने खुद से जानबूझकर उत्पन्न नहीं किए हों।
  4. जांच करने पर भी इन लक्षणों की वजह कोई शारीरिक बीमारी न हो।
  5. लक्षण व्यक्ति के सामाजिक, पेशेवर या अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों में परेशानी पैदा करते हों।
  6. लक्षण दर्द या लैंगिक दुष्क्रिया से जुड़ी समस्याओं तथा कायिक विकृति से संबंधित न हों और न ही किसी अन्य मेडिकल विकृति से संबंधित हो।

रूपांतर हिस्टीरिया के कारण

रूपांतर हिस्टीरिया के कई कारण हैं-
1. डरावनी स्थिति से बचना 
जब व्यक्ति कुछ खौफनाक एवं अप्रियकर परिस्थिति से बचना चाहता है तो ऐसे परिस्थिति में उसमें रुपांतरित हिस्टीरिया के लक्षण विकसित हो जाते हैं। 
Somatoform Disorder
जैसे कुछ वायु सैनिकों को बिना किसी शारीरिक विकृति के ही बहुत धुंधला दिखने लगा था यह लक्षण उस समय हवाई अड्डे पर विकसित हुआ जब उन्हें हवाई जहाज पर चढ़कर उसे उड़ाना था बाद में इस तरह का लक्षण उस समय समाप्त हो गया जब उन सैनिकों को अस्पताल में भर्ती करवाया ही जा रहा था इस उदाहरण से स्पष्ट है कि वायु सैनिक जो हवाई जहाज नहीं उड़ाना चाहते थे उस संघर्षमय एवं खौफनाक परिस्थिति का सामना अपने आंखों द्वारा धुंधला दिखने का लक्षण विकसित करके किया।

2. व्यक्तित्व शीलगुण
  1. जिन लोगों को दूसरों की बातें आसानी से मान लेने की आदत होती है उनमें रूपांतर हिस्टीरिया जल्दी हो सकता है। 
  2. जिनमें भावनाएं कमजोर होती हैं, उत्तेजना ज्यादा होती है, बात को बढ़ा-चढ़ाकर कहने की आदत होती है या रिश्तों में चालाकी करते हैं। उनमें भी यह रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।
  3. जिन महिलाओं का व्यक्तित्व आकर्षक होता है लेकिन वे यौन संबंधों में रुचि नहीं रखतीं। उनमें भी यह समस्या तेजी से बढ़ सकती है।
3. लक्ष्य पाने की चाहत
जब व्यक्ति किसी वांछित लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है परंतु सामान्यतः नहीं कर पाता है तो वैसी परिस्थिति में भी उस व्यक्ति में रूपान्तरित हिस्टीरिया विकसित हो जाता है। इस रोग का ढोंग रचकर व्यक्ति अपने वांछित लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। 
उदाहरण 
एक 10 साल का बच्चा था जिसे अपने परिवार से बहुत प्यार मिलता था। लेकिन उसे चलते समय पैर में लड़खड़ाहट और झटके की शिकायत होने लगी। मनोचिकित्सा से पता चला कि पहले वह अपने परिवार का सबसे प्यारा था। लेकिन जब पिता का एक्सीडेंट हुआ तो परिवार का सारा ध्यान पिता की ओर चला गया। इससे बच्चा परेशान और तनाव में रहने लगा। उसने इस समस्या से निपटने के लिए पैर में लड़खड़ाहट और झटके दिखाने शुरू कर दिए।

4. अवांछित इच्छाओं से बचाव
किसी अवांछित इच्छा का दमन करने पर भी व्यक्ति में कभी-कभी रूपांतरित हिस्टीरिया विकसित हो जाता है। 
उदाहरण 
एक व्यक्ति की पत्नी उसे छोड़कर किसी और के साथ चली गई जिसके बाद उसके पैरों में पक्षाघात (लकवा) हो गया। मनोचिकित्सा से पता चला कि वह अपनी पत्नी और उसके प्रेमी को मार डालना चाहता था। लेकिन उसने इस खतरनाक इच्छा का दमन कर दिया। पैरों में लकवा होने से वह अपनी इस इच्छा को पूरा करने से रुक गया। इससे साफ है कि रूपांतर हिस्टीरिया ऐसी दमन की गयी इच्छाओं से बचने का एक तरीका बन जाता है।

5. शारीरिक समस्या या दुर्घटना 
किसी दुर्घटना या बीमारी के बाद अगर व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों से बचना चाहता है तो उसमें यह रोग हो सकता है।
अगर किसी तरह के दुर्घटना से व्यक्ति को अपने जोखिम भरे किसी व्यावसायिक या अन्य उत्तरदायित्व से छुटकारा मिलता है तो व्यक्ति यही चाहेगा कि वह कुछ और दिन इसी तरह बीमार रहे ताकि उसे उत्तरदायित्व से छुटकारा मिला रहे। ऐसी परिस्थिति में रूपान्तरित हिस्टीरिया हो जाने की तीव्र सम्भावना होती है।

6. सामाजिक-सांस्कृतिक कारण
यह गाँवों, कम पढ़े-लिखे लोगों (जिन्हें मेडिकल एवं मनोवैज्ञानिक संप्रत्ययों के बारे में कम ज्ञान होता है।) और निम्न आर्थिक स्तर के लोगों में ज्यादा होता है। महिलाओं में यह रोग पुरुषों की अपेक्षा अधिक होता है और महिलाओं में इस रोग के लक्षण शरीर के दायीं ओर की तुलना में बायीं ओर अधिक होते पाया गया है।

कायप्रारूप विकृति का उपचार 

कायप्रारूप विकृति के उपचार के लिए कई प्रविधियाॅं निम्नांकित हैं-
1. सामना 
इस प्रविधि में चिकित्सक रोगी को अपने लक्षणों के प्रति अधिक जागरूकता बढ़ाकर उसका उपचार करने की कोशिश करते हैं। 
जैसे चिकित्सक रूपांतर हिस्टीरिया के एक ऐसे रोगी को जिसे दिखलाई नहीं दे रहा था। उसे कुछ नहीं दिखलाई देने के वावजूद भी उसका निष्पादन दृष्टिगत कार्यों पर अच्छा बतलाता है। इसका परिणाम यह होता है कि रोगी की दृष्टि चेतना बढ़ जाती है और रोगी में धीरे-धीरे सामान्य दृष्टि लगभग कायम हो जाती है। 

2. सुझाव 
कुछ चिकित्सकों का मत है कि यदि चिकित्सक पूरे विश्वास के साथ रोगी को मात्र यह सरल सुझाव देता है कि उसके लक्षण अब जल्द ही दूर हो जाएँगे तो इससे भी रोगी के उपचार पर अनुकूल प्रभाव पड़ते देखा गया है। 
रूपांतर हिस्टीरिया के रोगियों में सुझावशीलता अधिक होता है और कुछ चिकित्सकों का दावा रहा है कि यदि ऐसे रोगियों को पुरे विश्वास के साथ यह सुझाव दिया जाता है कि उसके रोग के लक्षण समाप्त हो जाएँगे तो सचमुच में ऐसे रोग के लक्षण बहुत हद तक समाप्त हो जाते दिखते है। 

3. मनोवैश्लेषिक सूझ
मनोवैश्लेषिक चिकित्सा में कायप्रारुप विकृति के उपचार के लिए रोगी में मनोवैश्लेषिक सूझ उत्पन्न करने पर अधिक बल डाला जाता है। इस तरह के सूझ के उत्पन्न हो जाने पर रोगी उन मानसिक संघर्षों के बारे में उत्तम समझ हासिल कर लेता है जो उसमें दैहिक लक्षण उत्पन्न किये होते हैं। 

4. अन्य चिकित्साएँ  
कायप्रारूप विकृति के उपचार में दूसरे तरह की चिकित्साओं का भी उपयोग सफलतापूर्वक किया गया है। जैसे (Amitriptyline) जो एक तरह का विषाद‌विरोधी औषध है तथा जिसका दर्द निवारक प्रभाव भी होता है, से दर्द विकृति के रोगियों को काफी लाभ होता है। 
दर्द से राहत पाने में सही सलाह भी बहुत मदद करती है। मरीज को यह बताया जाता है कि इलाज का उद्देश्य दर्द को पूरी तरह खत्म करना नहीं है बल्कि उस पर काबू पाना है। ताकि वे अपनी जिंदगी ठीक से जी सकें। इससे भी उन्हें काफी लाभ होता है। इसके अलावा पारिवारिक चिकित्सा को भी इस समस्या के इलाज में महत्वपूर्ण माना गया है।

मनोविच्छेदी विकृति के प्रकार, लक्षण, कारण एवं उपचार बी० ए० द्वितीय वर्ष


मनोविच्छेदी स्मृतिलोप

पहले इसे मनोजनिक स्मृतिलोप (Psychogenic amnesia) कहा जाता था यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें व्यक्ति तनाव या मानसिक आघात से जुड़ी अपनी महत्वपूर्ण यादों या अनुभूतियों को पूरी तरह या आंशिक रूप से भूल जाता है। इससे उसकी सामाजिक और रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर बुरा असर पड़ता है। इसके कई प्रकार हैं:

1. पश्चगामी स्मृतिलोप 
आघात से ठीक पहले की यादें भूल जाना।
2. उत्तर आघातीय स्मृतिलोप 
आघात के बाद की यादें भूल जाना।
3. अग्रगामी स्मृतिलोप 
आघात के बाद नई चीज़ें याद न रख पाना।
4. चयनात्मक स्मृतिलोप 
किसी घटना की कुछ खास बातें याद करना, बाकी भूल जाना।
5. सामान्यीकृत स्मृतिलोप
पूरी ज़िंदगी की यादें भूल जाना।
6. सतत स्मृतिलोप 
एक खास समय के बाद की यादें भूल जाना।
7. क्रमबद्ध स्मृतिलोप
किसी खास व्यक्ति या समूह से जुड़ी सारी यादें भूल जाना।

आखिरी तीन (सामान्यीकृत, सतत और क्रमबद्ध) को ज़्यादा गंभीर माना जाता है। अगर ये लक्षण दिखें तो विकृति गंभीर हो सकती है। यह बच्चों से लेकर वयस्कों तक किसी भी उम्र में हो सकता है और कुछ मिनटों से लेकर सालों तक रह सकता है।

मनोविच्छेदी आत्मविस्मृति

पहले इसे मनोजनिक आत्मविस्मृति (Psychogenic fugue)  कहा जाता था। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें व्यक्ति अपनी याददाश्त खो देता है और अचानक अपने घर को छोड़कर कहीं दूर चला जाता है। वहां वह नया नाम, नया काम और नई जिंदगी शुरू करता है। कई दिन, महीने या साल बाद उसे अचानक होश आता है कि वह नई जगह पर है और उसे समझ नहीं आता कि वह वहां कैसे और क्यों आया था। इस दौरान वह फिर अपनी नई जिंदगी के बारे में सबकुछ भूल जाता है।

अध्ययनों से पता चला है कि यह बीमारी किसी बड़े मानसिक आघात (जैसे दुखद घटना) के बाद शुरू होती है। ऐसे लोग अक्सर अपरिपक्व, आत्मकेंद्रित और सुझावों को जल्दी मानने वाले होते हैं। जब उन्हें ऐसी परेशानी का सामना करना पड़ता है जिससे बचना मुश्किल होता है तो वे उस दुख को भूलने और उससे दूर जाने की कोशिश करते हैं। लेकिन जब तनाव बहुत बढ़ जाता है तो वे अपनी पहचान और इच्छाओं को दबा देते हैं जो बाद में इस बीमारी का कारण बनता है। 
यह स्मृतिलोप चयनात्मक होता है और सिर्फ उन घटनाओं से जुड़ा होता है जो बहुत परेशान करने वाली और आत्म-सम्मान को चुनौती देने वाली होती हैं। इस विकृति में व्यक्ति सामान्य दिखता है और मुश्किल काम भी ठीक से कर सकता है। यह बीमारी बहुत कम लोगों (लगभग 0.2% जनसंख्या) में पाई जाती है यानी इसका प्रचलन काफी कम है।

मनोविच्छेदी पहचान विकृति

इस बीमारी को पहले बहुव्यक्तित्व विकार (Multiple personality disorder) कहा जाता था।  इसमें एक व्यक्ति के अंदर दो या उससे ज्यादा अलग-अलग व्यक्तित्व होते हैं। हर व्यक्तित्व का अपना संवेगात्मक और भावात्मक दृष्टिकोण अलग होता है। साथ ही अलग सोच और समझ भी होती है। व्यक्ति कुछ समय (महीनों या सालों) तक एक व्यक्तित्व में रहता है फिर अपने आप दूसरे व्यक्तित्व में चला जाता है। ये व्यक्तित्व एक-दूसरे से बहुत अलग होते हैं। उदाहरण के तौर पर, एक व्यक्तित्व में व्यक्ति हंसमुख और बेफिक्र हो सकता है तो दूसरे में गंभीर और चिंतित। जो जरूरतें या व्यवहार मुख्य व्यक्तित्व में दबे रहते हैं वे दूसरे व्यक्तित्वों में खुलकर सामने आते हैं।
मनोविच्छेदी विकृति के प्रकार, लक्षण, कारण एवं उपचार बी० ए० द्वितीय वर्ष
DID में एक व्यक्ति के अंदर कई अलग-अलग व्यक्तित्व अवस्थाएँ हो सकती हैं। एक अध्ययन के अनुसार औसतन ऐसे व्यक्तित्वों की संख्या 15 तक हो सकती है। लेकिन कुछ खास मामलों में यह संख्या बहुत ज्यादा भी हो सकती है। जैसे (Truddi Chase) के केस में, जहाँ उनके अंदर 92 अलग-अलग व्यक्तित्व पाए गए। जब किसी व्यक्ति में दो से ज्यादा व्यक्तित्व होते हैं तो आमतौर पर हर व्यक्तित्व को एक-दूसरे के बारे में कुछ पता होता है। वे आपस में बात भी कर सकते हैं और एक-दूसरे के साथ मिलकर काम भी कर सकते हैं।  व्यक्तित्व एक-दूसरे को समझते हैं और सहयोगी की तरह व्यवहार कर सकते हैं।

DID की शुरुआत आमतौर पर बचपन में ही हो जाती है लेकिन किशोरावस्था से पहले इसकी पहचान मुश्किल से होती है। यह दूसरी मानसिक बीमारियों की तुलना में ज्यादा लंबे समय तक रहने वाली और गंभीर बीमारी है और इससे पूरी तरह ठीक होना बहुत कम लोगों के लिए संभव हो पाता है। यह बीमारी पुरुषों की तुलना में महिलाओं में कहीं ज्यादा देखी जाती है। इसमें व्यक्तित्व विभाजन के अलावा भी कुछ लक्षण होते हैं। जैसे विषाद, बोर्डर रेखीय व्यक्तित्व तथा कायप्रारूप विकृति अधिक सामान्य हैं।

केस उदाहरण

जूली एक 36 साल की शादीशुदा महिला थी जिसका 8 साल का दत्तक बेटा ऐडम था। ऐडम स्कूल में बार-बार फेल हो रहा था। इसलिए जूली उसे मनोवैज्ञानिक क्लिनिक ले गई। वहां जांच के दौरान चिकित्सक को जूली के बारे में और जानने की जरूरत पड़ी।
जूली एक सहयोगी और समझदार महिला थी जिसे खुद के बारे में अच्छी जानकारी थी। छठे सत्र में उसने अचानक चिकित्सक से कहा कि वह किसी और को लाना चाहती है। चिकित्सक को पहले लगा कि कोई बाहर इंतजार कर रहा है लेकिन जूली ने आंखें बंद कीं फिर थोड़ी देर बाद खोलीं और सिगरेट निकालकर बुझाते हुए कहा "मैं चाहती हूं कि जूली सिगरेट न पिए। उसे तंबाकू की गंध से नफरत है।" उसने खुद को जेरी (दूसरा व्यक्तित्व) बताया। फिर एक घंटे बाद उसी तरह आंखें बंद कर तीसरे व्यक्तित्व जेनी के रूप में सामने आई।
जेनी यह बतलायी कि वह मौलिक व्यक्तित्व है और यह भी बतलायी कि 3 वर्ष की आयु में वह जेरी हो गयी थी तथा आठ साल की आयु होने पर वह जुली हो गयी थी। अपने क्षुब्ध पारिवारिक परिस्थिति से उत्पन्न तनाव से निपटने के लिए दो विभिन्न समयों में वह दो व्यक्तित्व का सृजन की थी।

जेनी ने बताया कि 3 से 8 साल की उम्र के बीच उसकी शारीरिक देखभाल नहीं हुई। पड़ोसी ने उसका यौन शोषण किया और 8 साल की उम्र में माता-पिता ने उसे "न सुधरने वाला" कहकर दूसरों को गोद दे दिया। उसी समय वह जेनी से जूली बन गई। जूली का व्यक्तित्व सरल था और वह मुश्किल हालातों से निपट सकती थी। लेकिन जूली को जेरी के व्यक्तित्व के बारे में कुछ नहीं पता था। चिकित्सा शुरू होने से दो साल पहले जब जूली 34 साल की थी। उसे जेरी के बारे में पता चला। जूली, जेनी और जेरी तीनों व्यक्तित्व एक-दूसरे से अलग थे। 
जेनी जो मूल व्यक्तित्व थी बहुत शर्मीली, डरी हुई और असुरक्षित थी। वह कभी-कभी 3 साल के बच्चे की तरह व्यवहार करती थी। उसे जूली और जेरी दोनों के बारे में पता था और वह चाहती थी कि जूली और जेरी एक दिन मिलकर ऐडम की अच्छी मां बनें।
जूली तीनों व्यक्तित्वों में सबसे संतुलित थी। वह विषमलिंगी (heterosexual) थी और एक अच्छी मां बनने के सारे गुण उसमें थे लेकिन उसे सिगरेट पीने की बुरी आदत थी। जूली को जेरी के बारे में पता नहीं था।
जेरी जूली से बिल्कुल उलट थी। वह समलिंगी (homosexual) थी मर्दाना कपड़े पसंद करती थी और आत्मविश्वास से भरी थी। और सिगरेट नहीं पीती थी। उसका ब्लड प्रेशर हमेशा जूली से 20 अंक ज़्यादा रहता था। जेरी को जूली के बारे में पता था।

इस उदाहरण में एक ही महिला के तीन अलग व्यक्तित्व—(जूली, जेनी और जेरी) दिखाए गए हैं। हर व्यक्तित्व में कुछ हद तक स्मृतिलोप था। जेनी को जूली और जेरी दोनों के बारे में पता था और जेरी को जूली की जानकारी थी लेकिन जूली को जेरी के बारे में कुछ नहीं पता था। 
ये तीनों व्यक्तित्व न सिर्फ याददाश्त में अलग थे बल्कि उनकी इच्छाएं, सोच, रुचियां, सीखने की क्षमता, ज्ञान, नैतिकता, लैंगिक रुझान, बोलने का तरीका, उम्र, ब्लड प्रेशर, और दिल की धड़कन में भी अंतर था। इस आधार पर यह केस बहुव्यक्तित्व विकृति (DID) का साफ उदाहरण है।

DID के कारण 

DID के केसेज का गभीर रूप से विश्लेषण करने के बाद इसके प्रमुख तीन कारण बतलाये गये हैं जो इस प्रकार हैं-

(1) लैंगिक दुर्व्यवहार 
DID का मुख्य कारण बचपन में हुआ दुर्व्यवहार खासकर यौन दुर्व्यवहार माना जाता है। आमतौर पर 4 से 6 साल की उम्र में जब कोई बच्चा विशेष रूप से लड़की इस तरह के दुर्व्यवहार का शिकार बनती है तो उसे गहरा संवेगात्मक आघात पहुँचता है। यह आघात बाद में DID जैसी मानसिक बीमारी का कारण बन सकता है। इस आघात से बचने के लिए बच्चा एक नया व्यक्तित्व बना लेता है जिसमें उसे सब कुछ नया लगता है और वह अपने पुराने व्यक्तित्व को भूल जाता है।

(2) आत्म सम्मोहन 
DID से पीड़ित लोग आत्म-सम्मोहन (self-hypnosis) की ओर बहुत झुकाव रखते हैं। आत्म-सम्मोहन का मतलब है कि व्यक्ति अपनी इच्छा से खुद को एक ऐसी शांत और गहरी अवस्था में ले जाता है जो औपचारिक सम्मोहन जैसी होती है। इस खासियत के कारण खासकर लड़कियाँ अपने व्यक्तित्व को आसानी से कई अलग-अलग पहचानों में बाँट लेती हैं।

(3) जब कोई व्यक्ति अपनी सावेगिंक समस्याओं से निपटने के लिए आत्म-सम्मोहन के जरिए नया व्यक्तित्व बनाने में सफल हो जाता है तो भविष्य में भी किसी समस्या के आने पर वह फिर से एक नया व्यक्तित्व बना लेता है। इस तरह एक ही व्यक्ति में कई अलग-अलग व्यक्तित्व बन जाते हैं जो DID का कारण बनते हैं।

DID के उपचार 

DID का इलाज मनोचिकित्सकों के लिए मुश्किल होता है। आमतौर पर इसके लिए दो तरह की चिकित्सा की जाती है- 
(1) संज्ञानात्मक चिकित्सा
इसमें चिकित्सक मरीज के अपने आप आने वाले विचारों को इकट्ठा करता है। फिर चिकित्सक उसे गलत या तर्कहीन विचारों को पहचानने और उनसे निपटने का तरीका सिखाता है। साथ ही चिकित्सक यह समझने की कोशिश करता है कि मरीज इन विचारों को क्यों महत्व देता है। जरूरत पड़ने पर चिकित्सक सम्मोहन का भी इस्तेमाल करता है। इससे मरीज अपनी बहु व्यक्तित्व की समस्या को समझता है उसकी अर्थहीनता को पहचानता है और धीरे-धीरे उसके लक्षण कम हो जाते हैं।

(2) मनोगतिकी चिकित्सा
इस चिकित्सा में चिकित्सक पहले रोगी को उसकी समस्या के बारे में जागरूक करने की कोशिश करता है। इसके लिए वह सम्मोहन का इस्तेमाल करता है और रोगी को सम्मोहित करके उसे उसके अलग-अलग व्यक्तित्वों से परिचित करवाता है। प्रत्येक व्यक्तित्व को खुलकर बोलने के लिए कहा जाता है और रोगी से यह भी कहा जाता है कि वह इन व्यक्तित्वों को सम्मोहन अवस्था के बाद भी याद रखे। जब रोगी अपने व्यक्तित्वों को समझ लेता है तो चिकित्सक उसे बताता है कि एक शरीर और एक दिमाग में कई व्यक्तित्वों का होना संभव नहीं है। ये अलग-अलग व्यक्तित्व मरीज ने बचपन में आत्म-सम्मोहन से बिना किसी गलत इरादे के अनजाने में बनाए थे। अब वयस्क होने के कारण इनकी जरूरत नहीं है क्योंकि रोगी में इन्हें परास्त करने की ताकत है। इससे मरीज धीरे-धीरे अपने असली व्यक्तित्व को महत्व देने लगता है और DID के लक्षण कम हो जाते हैं।

इसके अलावा विषादविरोधी और चिंताविरोधी औषधों का भी इस्तेमाल किया जाता है जो DID के इलाज में हल्का सकारात्मक प्रभाव दिखाती हैं। 

व्यक्तित्वलोप विकृति

व्यक्तित्वलोप विकृति एक ऐसी मानसिक स्थिति है जिसमें व्यक्ति खुद को अपने से अलग महसूस करता है। उसे लगता है कि वह मशीन की तरह चल रहा है या सपनों की दुनिया में जी रहा है। उसे ऐसा अनुभव होता है कि वह अपनी मानसिक प्रक्रियाओं एवं शारीरिक प्रक्रियाओं को बाहर से देख रहा है। इस विकृति में व्यक्ति को संवेदी भ्रामक, भावात्मक अनुक्रियाओं की कमी और अपनी ही क्रियाओं पर नियंत्रण खोने का एहसास होता है। 
हालांकि ऐसे लोग यह समझते हैं कि यह सिर्फ एक अनुभव है सच में वह मशीन या ऐसा कुछ नहीं हैं। ऐसे रोगियों में सम्मोहन का प्रभाव आसानी से हो सकता है।
DSM-IV (TR) में इसे एक अलग मनोविच्छेदी विकृति माना गया है लेकिन यह विवादास्पद है। कारण यह है कि इसमें स्मृति की समस्या नहीं होती है जबकि बाकी मनोविच्छेदी विकृतियों में यह मुख्य लक्षण होता है।

मनोग्रस्तता बाध्यता विकृति | लक्षण कारण तथा उपचार | Obsessive Compulsive Desorder (OCD)

प्रांरभ में मनोवैज्ञानिकों का मानना था कि मनोग्रस्तता तथा बाध्यता दो स्वतंत्र रोग है परन्तु बाद में स्पष्ट हो गया कि ये एक ही विकृति के दो पहलू हैं।

मनोग्रस्तता

इसमें रोगी बार बार किसी अतार्किक एवं असंगत विचारों को न चाहते हुए भी मन में दोहराते रहता है। व्यक्ति ऐसे विचारों के अर्थहीनता, असंगतता एवं अतार्किक स्वरूप को भलीभांति जानता है और उनसे छुटकारा पाना चाहता है परन्तु वे विचार बार-बार उसके मन में आकर मानसिक अशांति उत्पन्न करते रहते हैं।
मनोग्रस्तता का विचार कहलाने के लिए यह आवश्यक है कि ऐसे विचार से रोगी को मानसिक तकलीफ तथा उसका समय बर्बाद होना चाहिए तथा उससे व्यक्ति में दिन-प्रतिदिन की जिदंगी के सामान्य कार्यों, व्यवसायिक कार्यों, शैक्षिक कार्यों तथा सामाजिक कार्यों में पर्याप्त बाधा पहुंचना चाहिए।

मनोग्रस्तता में कुछ ऐसे विचार आते हैं जिनका सही-सही उत्तर देना कठिन होता है जैसे दुनिया में भगवान है या नहीं, सत्य क्या है इत्यादि।

बाध्यता

इसमें रोगी अपने इच्छा के विरुद्ध किसी कार्य को करते रहने के लिए बाध्य रहता है। जैसे साफ सुथरे हाथ को बार-बार धोना, ताला ठीक ढंग से लगा रहने पर भी उसे बार-बार झकझोर कर देखना, सड़क पर खड़े होकर आते जाते गाड़ियों का नम्बर नोट करना, किसी चीज को चुराने की बाध्यता (Kleptomania) , आग लगाने की बाध्यता इत्यादि।


मनोग्रस्तता तथा बाध्यता की प्रकृति 

  1. मनोग्रस्तता का संबंध विचार, चिंतन एवं प्रतिमाओं से होता है।
  2. मनोग्रस्तता में आने वाले विचार बेतुके एवं अर्थहीन होते हैं।
  3. इसमें आने वाले विचार का स्वरूप पुनरावर्ती होता है अर्थात रोगी के मन में बार-बार आकर उसकी मानसिक शांति भंग करते हैं।
  4. ऐसे विचार व्यक्ति के नियंत्रण से बाहर होते हैं।
  5. बाध्यता में व्यक्ति न चाहते हुए भी एक ही क्रिया को बार-बार दोहराता है।
  6. बाध्यता में व्यक्ति द्वारा की गई क्रियाएं अवांछित ही नहीं बल्कि अतार्किक एवं असंगत भी होते हैं।

कुछ ऐसी भी परिस्थितियां होती है जिसमें मनोग्रस्तता तथा बाध्यता के बीच स्पष्ट रेखा नही होती है। जैसे कभी-कभी किसी चिंता से बचने के लिए मन ही मन व्यक्ति कुछ जाप बार बार करता है या बार बार कुछ गिनती करने लगता है इस तरह के परिस्थिति को संज्ञानात्मक बाध्यता कहा जाता है।

Example of OCD
"38 वर्ष की एक महिला थी जो एक बच्चे की मां थी उसके मन में एक दिन में हजारो बार यह विचार आता था कि वह और उसका बच्चा जीवाणु या रोगाणु से ग्रसित हो जायेंगे। जब यह विचार उसके मन में आता था तो वह उसे रोक नहीं पाती थी और हजारों बार उसके बारे में सोचती थी। इस तरह के सतत चिंता से परेशान होकर वह घर पर कपड़े धोने का बाधित व्यवहार करना प्रारंभ कर देती है जिसमें दिन भर का ज्यादातर समय इसी में लग जाता था तथा वह अपने बच्चे को ऐसे कमरे में बंद रखती थी जिसके फर्श और दिवाल को वह कई बार रगड़ रगड़कर धोकर साफ कर लेती थी वह संदूषण के डर से घर के सभी दरवाजों और खिड़कियों को हाथ के बजाय पैर से ही खोलती और बंद करती थी। "

उक्त उदाहरण में महिला में पहले मनोग्रस्ति विचार उत्पन्न हुआ जो फिर बाद में बाध्यता में बदल गया।

मनोग्रस्तता के प्रारुप 

मनोग्रस्तता के पांच प्रारुप बतलाये गये हैं 
(1) मनोग्रस्ति शक 
यह तब उत्पन्न होता है जब कोई कार्य ठीक-ठाक ढंग से पूर्ण या संपन्न कर लिया जाता है। 
जैसे कमरा का ताला ठीक से बंद करके आने के बाद भी कुछ रोगियों के मन में यह विचार बार-बार आता है कि उसने ताला ठीक से बंद नहीं किया है। इस तरह का शक करीब 95% रोगियों में पाया गया।

(2) मनोग्रस्ति चिंतन 
इस तरह के चिंतन का संबंध रोगी के जीवन में भविष्य में घटने वाली घटनाओं से सम्बंधित होता है।  
जैसे एक गर्भवती महिला रोगी बार-बार यह चिंतन करके परेशान रहती थी कि लड़का पैदा होने के बाद उसे कहीं दूर नौकरी पर जाना पड़ सकता है परंतु लड़का हमारे पास ही आना चाहेगा और ऐसी परिस्थिति में तब वह क्या करेगी।
साक्षात्कार के लिए गये रोगियों में से 34% रोगियों में इस तरह का चिंतन पाया गया।

(3) मनोग्रस्ति आवेग 
कुछ रोगियों में कुछ साधारण एवं तुच्छ क्रियाओं को करने से सम्बद्ध तीव्र इच्छाएँ बार-बार आते देखी गयी और ऐसे रोगियों की संख्या 17% थी। 
जैसे एक चालीस वर्ष के वकील के मन में अपने इकलौते छोटे बेटे की गला घोंट देने की तीव्र आवेगिक इच्छा बार-बार आती थी।

(4) मनोग्रस्ति डर 
26% रोगियों में यह देखा गया कि वे इस बात से काफी भयभीत एवं डरे हुए रहते थे कि वे अपना नियंत्रण कहीं खोकर कुछ ऐसा कार्य न कर दें, जो सामाजिक रूप से लज्जित करने वाला हो। 
जैसे एक 32 वर्ष के शिक्षक को प्रायः यह डर परेशान करता था कि वह अपने शिक्षक वर्ग में अपने पत्नी के असंतोषजनक लैंगिक व्यवहार के बारे में कुछ कह न दें।

(5) मनोग्रस्ति प्रतिमा 
कुछ रोगियों में हाल में देखे गये दृश्य या कल्पना किये गये दृश्यों से सम्बद्ध घटना की प्रतिमाएँ मन में सतत आतीं थीं। ऐसे रोगियों की संख्या मात्र 7% थीं। 
जैसे एक रोगी के मन में शौचगृह में जाने पर यह प्रतिमा बार-बार आती थी कि उसके नवजात शिशु को पैखाना में कोई बहा दे रहा है।

बाध्यता के प्रारूप 

बाध्यता के दो प्रारूप मुख्य रूप से पाये गये-
(1) अनुवर्ती बाध्यता 
इसमें रोगी कोई क्रिया करने की प्रबल दवाब महसूस करता है। 
जैसे एक कर्मचारी जिसकी आयु 29 वर्ष की थी अपने जेब में बार-बार हाथ डालकर यह देखता था कि उसमें महत्त्वपूर्ण पत्र तो नहीं पड़ा है हालांकि वह जानता था कि यह सही नहीं है। इस तरह की अनुवर्ती बाध्यता करीब 61% रोगियों में पाया गया। 

2. नियंत्रण बाध्यता 
इस तरह के बाध्यता में रोगी अपना ध्यान किसी बाधित व्यवहार को नियंत्रित करने के ख्याल से कुछ आवर्ती व्यवहार करता है। 
जैसे एक 16 साल का लड़का अपने अनुचित लैंगिक इच्छा से उत्पन्न चिंता को नियंत्रित जोर-जोर से बोलते हुए गिनती करके करता था।

OCD के कारण

1. जैविक कारक
यदि किसी व्यक्ति के संबंधियों में चिंता विकृति अधिक होती है तो उस व्यक्ति में OCD उत्पन्न होने की सम्भावना बढ़ जाती है। और कुछ मनश्चिकित्सकों के अनुसार (encephalitis), सिर में चोट तथा मस्तिष्कीय ट्यूमर के कारण भी OCD उत्पन्न होता है।

जैव मेडिकल शोधकर्ताओं के अनुसार OCD एक मस्तिष्कीय रोग है इसके समर्थन में उन्होंने तीन तरह के सबूतों की चर्चा की है -

1. तंत्रकीय चिन्ह 
OCD मस्तिष्किय आघात से विकसित होता है।
जैसे एक आठ साल का बच्चा मैदान में खेल रहा था अचानक वह गिर गया और मस्तिष्किय रक्तस्राव के साथ वह बेहोश हो गया। इसके बाद उसके मस्तिष्क का सफलता पूर्वक सर्जिकल आपरेशन किया गया और बाद में उसमें बाध्यता विकसित हो गया। वह प्रत्येक चीज को सात बार गिनता था, प्रत्येक चीज का सात बार नाम लेता था वह सात बजने पर खाना खाता था।
कुछ अध्ययनों से पता चला है कि OCD का संबंध मिरगी रोग से भी होता है जैसे जब यूरोप में मिरगी रोग का प्रकोप 1916 से 1918 के बीच हुआ था तो उस समय ऐसे रोगियों में OCD के भी लक्षण विकसित हो गये थे।

2. मस्तिष्कीय स्कैन असामान्यता
OCD के रोगियों के मस्तिष्क में कई भाग ऐसे होते हैं जिनमें अतिक्रियाशीलता पायी जाती है। जैसे (Cortical striatal Thalamic) क्षेत्र की सक्रियता OCD के रोगियों में अधिक पाया जाता है। मस्तिष्क के इस क्षेत्र का संबंध असंगत सूचनाओं एवं व्यवहार की अनावश्यक पुनरावृत्ति को कम करना होता है स्वभावत: जब मस्तिष्क का यह क्षेत्र अत्यधिक क्रियाशील हो जाता है तो रोगी में असंगत सूचनाओं के बारे में आवृत्तीय चिंतन करने तथा संबंध व्यवहार की अनावश्यक पुनरावृत्ति अधिक होने लगती है जो OCD का प्रमुख लक्षण है।

3. औषध चिकित्सा से मिले सबूत 
इस क्षेत्र के विशेषज्ञों का मानना है कि जब कोई रोग किसी विशेष औषध से कम या समाप्त होता है तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि रोग का कारण मस्तिष्कीय है। क्योंकि ये औषध मस्तिष्क में कुछ प्रभाव उत्पन्न करके OCD के लक्षणों में कमी लाते हैं।


2. मनोविश्लेषणात्मक कारक 
अवांछनीय एवं अचेतन के इच्छाओं जो दमित होकर व्यक्ति के अचेतन में होती है चेतन में आने की कोशिश करती है तो इससे व्यक्ति एक सुरक्षात्मक उपायों को ढूंढता है और सुरक्षात्मक उपायों के रूप में वह OCD के लक्षणों को विकसित कर लेता है सुरक्षात्मक उपायों के रूप में व्यक्ति प्रतिस्थापन तथा विस्थापन का उपयोग करता है।

"जैसे एक लड़की का अचेतन खौफनाक चिंता यह था कि उसकी मां तीव्र बुखार से मर सकती है इस तरह का चिंतन जब जब चेतन में आता था तो वह चिंतित हो जाती थी और इस चिंता से बचने के लिए उसने अपने खौफनाक चिंतन का प्रतिस्थापन कुछ अवांछनीय वस्तु जैसे रंग एवं गर्म वस्तुओं के चिंतन से हो गया। अब वह कुछ खास तरह के रंग को बार-बार देखना तथा गर्म पानी से बार बार स्नान करना हाथ धोना आदि उसे अच्छा लगता था लड़की द्वारा प्रतिस्थापित चिंता अपनी स्वेच्छा से न होकर कारण पर आधारित है गर्म एवं रंगीन वस्तु से उसे बुखार का प्रतिबिंबन हो रहा था जिससे उसकी मां मर सकती थी।"

3. व्यवहारपरक सिध्दांत 
इस सिध्दांत के अनुसार OCD को एक सीखा गया विकृति माना गया है जो विशेष तरह के परिणामों से पुनर्बलित होता है एक ऐसा ही परिणाम है डर की कमी।

जैसे जब व्यक्ति गंदगी या जीवाणु से दूषित हो जाने की मनोग्रस्ति चिंतन को कम करने के लिए हाथ साफ करने का बाधित व्यवहार करता है तो व्यक्ति में दूषित हो जाने की चिंता कम होती है अर्थात इस अनुक्रिया से व्यक्ति को पुनर्बलन के रूप में डर में कमी होती है।
जैसे ताला बंद करके उसे बार-बार झकझोर कर यह देखना कि कहीं खुला तो नहीं रह गया यह भी इसका एक उदाहरण है।

संज्ञानात्मक सिध्दांत
संज्ञानात्मक सिध्दांत के अनुसार जब व्यक्ति किसी ऐसी परिस्थिति में होता है जिसमें कुछ अवांछनीय या खतरनाक परिणाम उत्पन्न होने की थोड़ी सम्भावना होती है और जब व्यक्ति इस तरह के परिणाम अतिआकलन करता है तो उसमें OCD के लक्षण विकसित होने की सम्भावना बढ़ जाती है।

OCD का उपचार

OCD के उपचार के लिए कई तरह के चिकित्सीय प्रविधियों का प्रावधान किया गया है जिसमें निम्नांकित तीन प्रमुख हैं-
  1. मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा 
  2.  व्यवहार चिकित्सा 
  3. औषध सिद्धांत

1. मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा 
 इस तरह की चिकित्सा में रोगी के अचेतन मन में दमित मानसिक संघर्ष की पहचान करने की कोशिश की जाती है। इस चिकित्सीय प्रविधि में रोगी के सुरक्षात्मक प्रतिक्रियाओं (defensive reaction) का विस्तृत विश्लेषण किया जाता है और उसके मानसिक संघर्ष की उत्पत्ति के कारणों में उसकी सूझ विकसित की जाती है। जब रोगी को रोग के कारण की उत्पत्ति में सूझ विकसित हो जाती है तो रोग के लक्षण लगभग समाप्त होते दिखते हैं। OCD के उपचार में मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा अधिक प्रभावकारी सिद्ध नहीं हुआ है क्योंकि इस विधि में रोगी के सुरक्षात्मक प्रतिक्रियाओं के विश्लेषण में वर्षों का समय लग जाता है और उसके बाद भी उसका कोई ठोस नतीजा नहीं निकलता है। 

2. व्यवहार चिकित्सा 
व्यवहार चिकित्सा में तीन प्रविधियों (अर्थात् मॉडलिंग फ्लडिंग तथा अनुक्रिया निवारण) का संयोजित रूप से उपयोग OCD के उपचार में किया जाता है। 
इन तीन प्रविधियों का संयुक्त उपयोग बार-बार हाथ धोने के बाधित व्यवहार को दूर करने में अधिक सफलतापूर्वक किया गया है। 
  1. इसमें पहले रोगी यह देखता है कि चिकित्सक अपने आपको गंदगी से किस प्रकार संदूषित कर लेता हैं। यह मॉडलिंग का उदाहरण हुआ। 
  2. इसके बाद चिकित्सक रोगी को अपने पूरे शरीर पर उस गंदगी को फैलाकर खूब रगड़ने के लिए कहता हैं। यह फ्लडिंग का उदाहरण हुआ। 
  3. फिर रोगी बिना गंदगी को धोये कुछ घंटों तक अपने आपको उसी अवस्था में रखे रहता है। यह अनुक्रिया निवारण का उदाहरण हुआ। 
इस तरह से कई बार रोगी अपने पूरे शरीर पर गंदगी को फैलाकर बिना उसे धोये या साफ-सुथरा किये घंटों तक बैठा रहता है। इसका परिणाम यह होता है कि संदूषण का मनोग्रस्ति चिंतन धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है और दिन-प्रतिदिन की जिंदगी में बार-बार हाथ धोने का बाधित व्यवहार भी कम हो जाता है। 

3. औषध चिकित्सा 
OCD के उपचार में कुछ औषधों जैसे (Clomipramine) के सेवन से OCD के लक्षण समाप्त होते हैं। परंतु बहुत से रोगी इस औषध से ठीक नहीं हो पाते हैं जिन रोगियों को कुछ लाभ भी होता है तो वे पूर्णतः स्वस्थ नहीं हो पाते हैं। उनके लक्षण थोड़े समय के लिए दब अवश्य जाते हैं और थोड़े समय के बाद वे पुनः वापस आ जाते हैं।
क्लोमिप्रेमाइन एक विषादविरोधी दवा (antidepressant drug) है जो सेरोटोनिन के पुनर्वापसी (reuptake) को रोकता है। 
बहुत से रोगी इस औषध के सेवन से भी ठीक नहीं हो पाते हैं तथा बहुत से रोगी इस औषध के पार्श्व प्रभाव (side effect) के डर से सेवन नहीं करते हैं। कब्जियत, ऊघना तथा लैंगिक अभिरुचि में कमी इसके प्रमुख पार्श्व प्रभाव हैं।  


निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है OCD के उपचार के कई प्रविधियाँ हैं जिनमें व्यवहार चिकित्सा सबसे अधिक प्रभावी है।

सामान्यीकृत चिंता विकृति | लक्षण | कारण | उपचार | GAD | Symptoms | Etiology | Treatment


यह एक ऐसी विकृति है जिसमें रोगी चिरकालिक अवास्तविक या अत्यधिक चिंता से ग्रस्त रहता है इस तरह की चिंता को स्वतंत्र प्रवाही कहा जाता है। 
इससे ग्रसित व्यक्ति हमेशा तनाव, चिंता एवं बिखरित अशांति की दुनिया में होता है। DSM IV (TR) के अनुसार यदि किसी व्यक्ति की जिंदगी कम से कम गत छः माह तक ऐसे बीते हो जिसमें अधिकतर अवधि में उसे अवास्तविक एवं अत्यधिक चिंता बना हुआ है तो निश्चित रूप से उसे GAD का रोगी माना जायेगा । GAD की शुरुआत सामान्यतः 15 वर्ष के आयु में प्रांरभ हो जाता है परन्तु कुछ ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जिन्हें इसकी समस्या ज़िदंगी भर होती है।


लक्षण

  1. सांवेगिक रूप से ऐसे रोगी बैचेन, तनावग्रस्त, सतर्क, हैरान दिखता है वह आने वाले खतरों जैसे ह्रदय आघात, मर जाने या नियंत्रण खोने आदि जैसे बातों के बारे में सोच सोचकर परेशान रहता है।
  2. संज्ञानात्मक रूप से व्यक्ति हमेशा कुछ बुरा होने की उम्मीद करते रहता है परन्तु यह नहीं बता पाता है कि क्या बुरा होने वाला है।
  3. दैहिक रूप से व्यक्ति में आपातकालीन दैहिक प्रतिक्रियाएं भी होते पायी जाती है जिसमें पसीना, आना ह्रदय गति तीव्र होना, पेट की गड़बड़ी होना, सिर का उड़ा उड़ा अनुभव होना, हाथ पांव काफी ठंड हो जाना आदि प्रमुख हैं।
  4. ऐसे व्यक्ति व्यवहारात्मक रूप से हमेशा अपने आप को दूसरों से छिपाते है।
  5. ऐसे व्यक्ति जल्द ही थकान अनुभव करते हैं।
  6. एकाग्रचित्त होने में कठिनाई का अनुभव करते हैं।
  7. चिड़चिड़ा व्यवहार दिखलाते हैं एवं अनिद्रा की भी शिकायत रहती है।
  8. ऐसे व्यक्ति को किसी निर्णय पर पहुंचने में कठिनाई होती है और यदि कोई निर्णय ले लेते हैं तो यह सोच-सोचकर परेशान होते हैं कि उनके निर्णय में कोई त्रुटि अवश्य होगी।

GAD के कारण 

GAD के कई कारण हैं जिनमें से निम्नांकित प्रमुख हैं -
1. जैविक कारक 
GAD का कारण आनुवांशिकता है। 
जैसे एकांडी जुड़वा बच्चों के 17 युग्मों तथा भ्रातीय जुड़वा बच्चों के 28 जुड़वा युग्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया। जिसमें 49% एकांडी जुड़वा बच्चों में GAD पाया गया जबकि मात्र 4% भ्रातीय जुडवा बच्चों में GAD पाया गया। 

2. मनोवैश्लेषिक कारक
इस सिध्दांत के अनुसार अहं की इच्छा एवं उपाहं (id) की इच्छा में अचेतन संघर्ष के कारण GAD की उत्पत्ति होती है। उपाहं की इच्छाएं चेतन में आना चाहती है परंतु अहं, उपाहं की इच्छाओं को चेतन में आने से रोकता है।

3. अधिगम से सम्बंधित कारक
यहां GAD को वातावरण के बाह्य उद्दीपकों से अनुबंधित माना जाता है।

4. संज्ञानात्मक व्यवहारात्मक माॅडल (CBT)
संज्ञानात्मक व्यवहारात्मक माॅडल में GAD के प्रमुख कारण के रुप में नियंत्रण एवं निःसहायता पर ध्यान केन्द्रित किया गया है। 
GAD के रोगी किसी साधारण, नयी एवं अस्पष्ट परिस्थिति को तनावपूर्ण एवं धमकी भरा प्रत्यक्षण करता है और रोगी धमकीपूर्ण परिस्थिति को अपने नियंत्रण से बाहर मानता है जिससे उसमें अत्यधिक चिंता उत्पन्न होता है।


GAD के उपचार 

GAD के उपचार के लिए दो तरह की प्रविधियां अधिक लोकप्रिय है 
1. जैविक या मेडिकल प्रविधि 
चिंता विरोधी औषध लेने से GAD के रोगी में चिंता लक्षणों में काफी कमी आ जाती है परन्तु ऐसा देखा गया है कि औषध को बंद करते ही सभी लक्षण पुनः लौट आते हैं।

2. संज्ञानात्मक व्यवहारात्मक चिकित्सा 
GAD के उपचार में चिंता विरोधी औषध की तुलना में CBT और शिथिलीकरण को अधिक श्रेष्ठ पाया गया है।

कभी-कभी GAD के रोगियों में चरम निःसहायता का भी भाव उत्पन्न हो जाता है ऐसी परिस्थिति में इस लक्षण को दूर करने के लिए उचित चिकित्सीय प्रविधि (जैसे शाब्दिक निर्देश, माॅडलिंग या क्रियाप्रसूत शेपिंग) अपनाकर रोगी में सामर्थ्यता का भाव विकसित किया जाता है।

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि GAD के उपचार के लिए चिंता विरोधी औषधों का उपयोग अस्थायी तथा CBT  का उपयोग स्थायी समाधान के लिए किया जा सकता है।

फ्रायड का मनोवैश्लेषिक विचारधारा | मानसिक पहलू | Freudian Psychoanalytic Viewpoints | Mental Aspect

असामान्य मनोविज्ञान के इतिहास में असामान्यता के मनोवैश्लेषिक विचारधारा की उत्पत्ति सिगमंड फ्रायड के प्रयासों से हुई है। 19वीं शताब्दी के अन्त तक ऐसा समझा जाता था कि मानसिक रोग सिर्फ दैहिक कारकों से होता है।


फ्रायड पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बताया कि असामान्य व्यवहार या मानसिक रोग पूर्णतः मनोवैज्ञानिक कारकों से उत्पन्न होता है और इसका उपचार भी मनोवैज्ञानिक विधियों से ही ठीक ढंग से हो सकता है। असामान्यता के उनके इस विचारधारा को मनोवैश्लेषिक विचारधारा (Psychoanalytic Viewpoints) कहा गया। तथा उनके द्वारा बतलाये गये उपचार की विधियों को मनोविश्लेषण कहा गया।

फ्रायड के इस विचारधारा से कुछ हटकर परन्तु उनके मूल भावों की सराहना करते हुए कुछ लोगों (C. G. Jung, Alfred Adler, Karl Menninger, Karen Harney, Erich From, Harry Stack Sullivan, Anna Freud) ने असामान्यता की एक अलग व्याख्या प्रस्तुत की। इन नये लोगों के विचारधाराओं को एक साथ मिलाकर मनोगतिकी विचारधारा (Psychodynamic approach) कहा जाता है।


फ्रायड मनोविश्लेषण विचारधारा

इस विचारधारा का मूल तत्व यह है कि मानसिक रोग दैहिक कारकों से नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक कारकों से उत्पन्न होते हैं। फ्रायड की यह विचारधारा काफी जटिल एवं विदित है अतः इसका वर्णन निम्नांकित भागों में बांटकर किया जायेगा।
  • मानसिक पहलू
  • दैनिक जीवन की मनोवृत्तियां
  • मानसिक संघर्ष एवं मनोरचनाएं
  • मनोलैंगिक विकास का सिध्दांत

मानसिक पहलू

फ्रायड का विचार था कि व्यक्ति के व्यवहार (सामान्य या असामान्य) को समझने के लिए यह आवश्यक है कि उसके व्यक्तित्व के विकास एवं संगठन का अध्ययन किया जाये। व्यक्तित्व के विकास एवं संगठन का अध्ययन करने के लिए यह आवश्यक है कि उसके मन या मानसिक पहलू का अध्ययन किया जाए।
फ्रायड के अनुसार मन या मानसिक पहलू से तात्पर्य व्यक्तित्व के उन कारकों से होता है जिसे हम अंतर्रात्मा कहते हैं तथा जो हमारे व्यक्तित्व में संगठन पैदा करके हमारे व्यवहारों को वातावरण के साथ समायोजन करने में मदद करता है।

फ्रायड ने मन के दो निम्नांकित पहलूओं के अध्ययन पर अधिक बल डाला है।
  1. मन का अकारात्मक पहलू
  2. मन का गत्यात्मक या संरचनात्मक पहलू


1. मन का अकारात्मक पहलू

मन का अकारात्मक पहलू व्यक्तित्व की गत्यात्मक शक्तियों के बीच होने वाले संघर्षो का एक कार्यस्थल है। इस पहलू के अनुसार मन को तीन स्तर में बांटा गया है -
  1. चेतन
  2. अर्ध्दचेतन
  3. अचेतन

CONSCIOUS, SUBCONSCIOUS, UNCONSCIOUS
चेतन 

चेतन से तात्पर्य मन के वैसे भाग से होता है जिसमें वर्तमान में होने वाले सभी अनुभव एवं संवेदनाएं होतीं हैं। जैसे अभी आप किताब पढ़ रहे हैं अतः इससे जो अनुभूति आपके मन में हो रहा है वह चेतन है।

चेतन की विशेषताएं
  1. यह मन का सबसे छोटा उपखण्ड है।
  2. चेतन मन अर्ध्दचेतन तथा अचेतन पर प्रतिबंधक का कार्य करता है।
  3. चेतन मन का संबंध बाहरी जगत के वास्तविकताओं के साथ सीधा होता है।
  4. चेतन मन में वर्तमान विचारों एवं घटनाओं की जीवित स्मृति चिन्ह होते है अतः उनकी पहचान तथा प्रत्याहन आसानी से किया जा सकता है।
  5. चेतन मन में व्यक्तिगत, नैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक आदर्श जैसे विचार होते हैं।

अर्ध्दचेतन

अर्ध्दचेतन मन से तात्पर्य वैसे मन से होता है जो न तो पूर्णतः चेतन होता है और न ही पूर्णतः अचेतन होता है। इसमें वैसी इच्छा, विचार एवं भाव होते हैं जो हमारे वर्तमान अनुभव या चेतन में नहीं होते हैं परन्तु थोडा़ प्रयास करने पर वे हमारे चेतन में आ जाते हैं अर्ध्दचेतन को अवचेतन तथा सुलभ स्मृति के नाम से भी जाना जाता है।

उदाहरण जैसे आप अपनी किसी किताब को नहीं पाते हैं और थोड़ी देर के लिए परेशान हो जाते हैं फिर कुछ देर तक सोचने के बाद पता चलता है कि वह किताब आपने अपने मित्र को दी थी जो की अभी उसके पास ही है।

अर्ध्दचेतन की विशेषताएं
  1. अर्ध्दचेतन चेतन से बड़ा तथा अचेतन से छोटा होता है।
  2. अर्ध्दचेतन चेतन तथा अचेतन के बीच पुल का काम करता है अर्थात अचेतन से चेतन में जाने वाली इच्छाएं भाव एवं विचार आदि अर्ध्दचेतन से होकर ही गुजरते हैं।
  3. अर्ध्दचेतन तथा चेतन के बीच का पर्दा कमजोर होता है यही कारण है कि अर्ध्दचेतन में मौजूद भाव या विचार थोडा़ सा प्रयास करने पर चेतन में आ जाते हैं।

अचेतन

फ्रायड के अनुसार मन का सबसे बड़ा एवं गहरा भाग अचेतन है तथा यह मन का सबसे महत्वपूर्ण भाग है।

अचेतन का शाब्दिक अर्थ है जो चेतन या चेतना से परे हो। हमारे कुछ अनुभव या विचार ऐसे होते हैं जो न तो हमारी चेतन में होते हैं और न ही अर्ध्दचेतन में। ऐसे विचार अचेतन में होते हैं।
अचेतन मन में रहने वाले विचार का स्वरूप कामुक, असामाजिक, अनैतिक तथा घृणित होता है। क्योंकि ऐसे विचार एवं इच्छाओं को दिन-प्रतिदिन की जिदंगी में पूरा करना संभव नहीं होता है इसलिए इनको चेतन से हटाकर अचेतन में दमित कर दिया जाता है। ये विचार अचेतन में जाकर समाप्त नही होते हैं बल्कि कुछ देर तक निष्क्रिय रहने के पश्चात चेतन में आने का प्रयत्न करते रहते हैं और इन इच्छाओं को चेतन में आने से अहं रोकता है। लेकिन कुछ ऐसे अवसर (जैसे स्वप्न, दैनिक जीवन की मनोविकृतियां, सम्मोहन आदि) आते हैं जब ऐसी इच्छाएं रूप बदलकर चेतन में प्रवेश कर जातीं हैं। जहां अचेतन की अनुभूतियां या विचार चेतन में व्यक्त हो जातीं हैं।
उदाहरण- 
जैसे किसी मित्र के घर पर यदि आप किताब छोड़कर चले आते हैं तो फ्रायड के अनुसार आप में उस मित्र से पुनः मिलने की एक इच्छा रहती है जो अचेतन में होती है वही इच्छा रूप बदलकर (अर्थात किताब मित्र के घर छोड़ देने के रूप में) चेतन में व्यक्त हो रही है।

अचेतन की विशेषताएं
  1. अचेतन मन चेतन तथा अर्ध्दचेतन से बड़ा होता है।
  2. अचेतन में कामुक, अनैतिक एवं असामाजिक इच्छा मौजूद होती है।
  3. अचेतन का स्वरूप गत्यात्मक होता है अर्थात अचेतन की इच्छाएं चेतन में आने की कोशिश करती रहती हैं।
  4. अचेतन व्यक्ति के नियंत्रण से बाहर होता है।
  5. अचेतन अपनी इच्छाओं की अभिव्यक्ति स्वप्न तथा दैनिक जीवन की मनोविकृतियों के रूप में करता है।

मन का गत्यात्मक या संरचनात्मक पहलू

फ्रायड के अनुसार मन के गत्यात्मक पहलू से तात्पर्य उन साधनों से होता है जिसके द्वारा मूल प्रवृत्तियों से उत्पन्न मानसिक संघर्षो का समाधान होता है। 
मूलप्रवृत्ति से तात्पर्य वैसे जन्मजात शारीरिक उत्तेजना से होता है जिसके द्वारा व्यक्ति के सभी तरह के व्यवहार निर्धारित किए जाते हैं। 
फ्रायड ने मूल प्रवृत्ति को दो भागों में बांटा है -
जीवन मूल प्रवृत्ति तथा मृत्यु मूल प्रवृत्ति।

जीवन मूल प्रवृत्ति द्वारा व्यक्ति सभी तरह के रचनात्मक कार्य तथा मृत्यु मूल प्रवृत्ति द्वारा व्यक्ति सभी तरह के विध्वंसात्मक तथा आक्रामक व्यवहारों का निर्धारण होता है। 
सामान्य व्यक्तित्व में इन दोनों प्रवृत्तियों में संतुलन बना रहता है जब इन परस्पर विरोधी मूलप्रवृत्तियों में संघर्ष होता है तो व्यक्ति उनका समाधान करने की कोशिश करता है। 
इस तरह के समाधान के लिए फ्रायड ने तीन प्रतिनिधियों का वर्णन किया है 
  1. उपाहं (id)
  2. अहं (Ego)
  3. पराहं (Super Ego)
Id, Ego , Super Ego

उपाहं

1. उपाहं में जीवन मूल प्रवृत्ति तथा मृत्यु मूल प्रवृत्ति दोनों पायी जाती है। 

जैसे एक बच्चा अपने खिलौने से खेलता है और मन भर जाने पर पटककर तोड़ देता है इन दोनों ही कार्यों से बच्चों को आनन्द मिलता है।

2. उपाहं का सम्बंध बाह्य वातावरण की वास्तविकताओं से नहीं होता है। 
जैसे जब कोई बच्चा हाथी देखने का निश्चय कर लेता है तो वह हाथी देखने के लिए लालायित रहता है चाहे उस समय हाथी दिखलाना संभव हो या नहीं।

3. उपाहं आनन्द सिध्दांत द्वारा निर्देशित होता है। उपाहं का उद्देश्य सिर्फ सुख प्राप्त करना होता है इसलिए उपाहं केवल सुख प्रदान करने वाली इच्छाओं को ही जन्म देती है चाहे वे इच्छाएं सामाजिक रूप से अनुचित एवं अविवेकपूर्ण ही क्यों न हो।
जैसे जब एक बच्चा हाथी देखने का इच्छा प्रकट करता है तो वह कोसों दूर चलकर भी हाथी देखने जाने से नही हिचकिचाता है।

4. उपाहं अतार्किक होता है क्योंकि इसमें परस्पर विरोधी इच्छाएं संचित होती है। 
जैसे किसी व्यक्ति में एक महिला को जान से मार देने की भी इच्छा हो सकती है परन्तु साथ ही साथ उसी महिला के साथ यौन संबंध की भी इच्छा उसमें हो सकती है।

5. उपाहं अनैतिक होता है उपाह को सही गलत का ज्ञान नहीं होता है और उसे यह भी पता नहीं होता कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं। यही कारण है कि एक छोटा बच्चा बिच्छू तक को हाथ में पकड़ लेने में नहीं हिचकिचाता है।

6. उपाहं असंगठित होता है क्योंकि उपाह की अनुभूतियां एक दूसरे से संबंधित नहीं होती है। 
जैसे यदि किसी बच्चे का हाथ एक बार गर्म स्टोव को स्पर्श कर लेने से जल जाता है तब पर भी वह कुछ समय बाद स्टोव के सामने होने पर स्टोव को छूने की कोशिश करता है।

7. उपाहं पूर्णतः अचेतन होता है इसलिए इसमें अनैतिक, असामाजिक एवं अवास्तविक प्रवृत्ति पायी जाती है।

अहं
जन्म के कुछ दिन बाद तक बच्चा पूर्णतः उपाहं की प्रवृत्ति द्वारा नियंत्रित होता है परन्तु सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों के कारण ऐसी प्रवृत्ति एवं इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो पाती है। इसके फलस्वरूप व्यक्ति को निराशा का अनुभव होता है और उनका संबंध वास्तविकता से स्थापित होता है इस प्रक्रिया में उसमें अहं का विकास होता है। 

अहं मन का वह हिस्सा होता है जिसका संबंध वास्तविकता से होता है तथा जो बचपन के उपाहं के प्रवृत्तियों से ही जन्म लेता है अहं को व्यक्तित्व का निर्णय लेने वाला या कार्यकारिणी शाखा माना गया है चूंकि अहं अंशतः चेतन, अंशतः अर्ध्दचेतन तथा अंशतः अचेतन होता है इसलिए अहं द्वारा इन तीनों स्तरों पर ही निर्णय लिया जाता है।

अहं व्यक्ति के आवश्यकता की पूर्ति करने तथा अन्य संज्ञानात्मक एवं बौद्धिक कार्यों को करने में तिकोणी संघर्ष में घिर जाता है अहं इन कार्यों को करने में उपाहं, पराहं एवं वास्तविक दुनिया के मांगो का ध्यान रखता है उपाहं एवं पराहं के मांग अवास्तविक होते हैं दूसरे तरफ बाह्य दुनिया की मांग वास्तविक एवं सामाजिक नियमों के अनुकूल होता है।

यदि अहं बाह्य दुनिया के वास्तविकताओं के पक्ष में निर्णय लेता है तो इससे उपाहं एवं पराहं की इच्छाओं एवं प्रवृत्तियों की अवहेलना होती है और इनकी इच्छाओं एवं प्रवृत्तियों के पक्ष में निर्णय लेता है तो दुनिया के वास्तविकता की उपेक्षा होती है फलस्वरूप अहम के सामने एक संघर्षमय परिस्थिति होती है जहां ऐसा निर्णय करना होता है जिससे इन दोनों पक्षों को समान संतुष्टि मिले। 
व्यक्तित्व की कार्यकारिणी शाखा के रूप में अहं किसी संघर्षमय परिस्थिति से उत्पन्न चिंता को कम करने के लिए का (defense mechanism) सहारा लेता है इस (defense mechanism) के कई प्रकार है जिसमें से दमन एक प्रमुख प्रकार है।

अहं की विशेषताएं 
  1. अहं व्यक्तित्व की कार्यकारिणी शाखा के रुप में कार्य करता है अतः इसके द्वारा सभी महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाते हैं।
  2. अहं अंशतः चेतन, अंशतः अर्ध्दचेतन तथा अंशतः अचेतन होता है।
  3. अहं वास्तविक सिध्दांत द्वारा निर्देशित एवं नियंत्रित होता है।
  4. अहं का संबंध नैतिकता से नहीं होता है।

3. पराहं (Super ego)
पराहं अहं से ऊँचा (above-I) होता है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है वह अपना परिचय माता-पिता के साथ स्थापित करते जाता है जिसके परिणामस्वरूप वह यह सीख लेता है कि क्या उचित है तथा क्या अनुचित है। 
इस तरह से बचपन में समाजीकरण के दौरान बच्चा माता-पिता द्वारा दिये गये उपदेशों को अपने अहं में आत्मसात कर लेता है और यही बाद में पराहं का रूप ले लेता है। 
पराहं विकसित होकर एक तरफ उपाहं की कामुक,  आक्रामक एवं अनैतिक प्रवृत्तियों पर रोक लगाता है तो दूसरी ओर अहं को वास्तविक लक्ष्यों से हटाकर नैतिक लक्ष्यों की ओर ले जाता है। इसी तरह के सीखना से पराहं के विकास की शुरूआत होती है। 

पराहं के दो उपतंत्र होते हैं 
1. अन्तः करण या विवेक 
जब माता पिता द्वारा बच्चों को अनुचित कार्य करने पर सजा मिलती है तो इससे उनमें विवेक विकसित होता है 
2. अहं आदर्श 
जब बच्चों को उचित कार्य करने पर माता पिता द्वारा पुरस्कार दिया जाता है तो उनमें अहं आदर्श विकसित होता है।

पराहं को व्यक्तित्व का नैतिक शाखा माना गया है जो व्यक्ति को यह बतलाता है कि कौन कार्य नैतिक है तथा कौन कार्य अनैतिक है। 
पराहं आदर्शवादी सिद्धान्त द्वारा निर्देशित एवं नियंत्रित होता है। 
एक पूर्णतः विकसित पराहं व्यक्ति के कामुक एवं आक्रामक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करने के लिए दमन का प्रयोग करता है। हालाँकि वह दमन का प्रयोग स्वयं नहीं करता है बल्कि अहं को आदेश देकर दमन का प्रयोग करवाता है। यदि अहं इस आदेश का पालन नहीं करता है, तो इससे व्यक्ति में दोष-भाव (guilt-feeling) उत्पन्न हो जाता है। 

उपाहं के ही समान पराहं को भी अवास्तविक कहा गया है क्योंकि पराहं इस बात का ख्याल नहीं करता कि उसके नैतिक आदेशों को पूरा करने में अहं को वातावरण में उपस्थित किन-किन कठिनाइयों का सामना करना होता है। पराह अपने नैतिक आदेशों के लक्ष्य को पूरा करने के लिए अहं को अपनी ओर खींचने की भरपूर कोशिश करता है। अहं के समान ही पराहं चेतन, अर्द्धचेतन एवं अचेतन तीनों ही होता है।


पराहं की विशेषताएं 
  1. पराहं में नैतिक एवं आदर्शवादी विचार होते हैं।
  2. पराहं, उपांह के ही समान अवास्तविक होता है।
  3. पराहं चेतन, अर्ध्दचेतन तथा अचेतन तीनों स्तरों पर कार्य करता है।
  4. यह आदर्शवादी सिध्दांत द्वारा निर्देशित एवं नियंत्रित होता है।
  5. पराहं व्यक्ति के अनैतिक एवं कामुक प्रवृत्तियों पर अहं द्वारा दमन करवाता है।