फ्रायड का मनोवैश्लेषिक विचारधारा | मानसिक पहलू | Freudian Psychoanalytic Viewpoints | Mental Aspect

असामान्य मनोविज्ञान के इतिहास में असामान्यता के मनोवैश्लेषिक विचारधारा की उत्पत्ति सिगमंड फ्रायड के प्रयासों से हुई है। 19वीं शताब्दी के अन्त तक ऐसा समझा जाता था कि मानसिक रोग सिर्फ दैहिक कारकों से होता है।


फ्रायड पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बताया कि असामान्य व्यवहार या मानसिक रोग पूर्णतः मनोवैज्ञानिक कारकों से उत्पन्न होता है और इसका उपचार भी मनोवैज्ञानिक विधियों से ही ठीक ढंग से हो सकता है। असामान्यता के उनके इस विचारधारा को मनोवैश्लेषिक विचारधारा (Psychoanalytic Viewpoints) कहा गया। तथा उनके द्वारा बतलाये गये उपचार की विधियों को मनोविश्लेषण कहा गया।

फ्रायड के इस विचारधारा से कुछ हटकर परन्तु उनके मूल भावों की सराहना करते हुए कुछ लोगों (C. G. Jung, Alfred Adler, Karl Menninger, Karen Harney, Erich From, Harry Stack Sullivan, Anna Freud) ने असामान्यता की एक अलग व्याख्या प्रस्तुत की। इन नये लोगों के विचारधाराओं को एक साथ मिलाकर मनोगतिकी विचारधारा (Psychodynamic approach) कहा जाता है।


फ्रायड मनोविश्लेषण विचारधारा

इस विचारधारा का मूल तत्व यह है कि मानसिक रोग दैहिक कारकों से नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक कारकों से उत्पन्न होते हैं। फ्रायड की यह विचारधारा काफी जटिल एवं विदित है अतः इसका वर्णन निम्नांकित भागों में बांटकर किया जायेगा।
  • मानसिक पहलू
  • दैनिक जीवन की मनोवृत्तियां
  • मानसिक संघर्ष एवं मनोरचनाएं
  • मनोलैंगिक विकास का सिध्दांत

मानसिक पहलू

फ्रायड का विचार था कि व्यक्ति के व्यवहार (सामान्य या असामान्य) को समझने के लिए यह आवश्यक है कि उसके व्यक्तित्व के विकास एवं संगठन का अध्ययन किया जाये। व्यक्तित्व के विकास एवं संगठन का अध्ययन करने के लिए यह आवश्यक है कि उसके मन या मानसिक पहलू का अध्ययन किया जाए।
फ्रायड के अनुसार मन या मानसिक पहलू से तात्पर्य व्यक्तित्व के उन कारकों से होता है जिसे हम अंतर्रात्मा कहते हैं तथा जो हमारे व्यक्तित्व में संगठन पैदा करके हमारे व्यवहारों को वातावरण के साथ समायोजन करने में मदद करता है।

फ्रायड ने मन के दो निम्नांकित पहलूओं के अध्ययन पर अधिक बल डाला है।
  1. मन का अकारात्मक पहलू
  2. मन का गत्यात्मक या संरचनात्मक पहलू


1. मन का अकारात्मक पहलू

मन का अकारात्मक पहलू व्यक्तित्व की गत्यात्मक शक्तियों के बीच होने वाले संघर्षो का एक कार्यस्थल है। इस पहलू के अनुसार मन को तीन स्तर में बांटा गया है -
  1. चेतन
  2. अर्ध्दचेतन
  3. अचेतन

CONSCIOUS, SUBCONSCIOUS, UNCONSCIOUS
चेतन 

चेतन से तात्पर्य मन के वैसे भाग से होता है जिसमें वर्तमान में होने वाले सभी अनुभव एवं संवेदनाएं होतीं हैं। जैसे अभी आप किताब पढ़ रहे हैं अतः इससे जो अनुभूति आपके मन में हो रहा है वह चेतन है।

चेतन की विशेषताएं
  1. यह मन का सबसे छोटा उपखण्ड है।
  2. चेतन मन अर्ध्दचेतन तथा अचेतन पर प्रतिबंधक का कार्य करता है।
  3. चेतन मन का संबंध बाहरी जगत के वास्तविकताओं के साथ सीधा होता है।
  4. चेतन मन में वर्तमान विचारों एवं घटनाओं की जीवित स्मृति चिन्ह होते है अतः उनकी पहचान तथा प्रत्याहन आसानी से किया जा सकता है।
  5. चेतन मन में व्यक्तिगत, नैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक आदर्श जैसे विचार होते हैं।

अर्ध्दचेतन

अर्ध्दचेतन मन से तात्पर्य वैसे मन से होता है जो न तो पूर्णतः चेतन होता है और न ही पूर्णतः अचेतन होता है। इसमें वैसी इच्छा, विचार एवं भाव होते हैं जो हमारे वर्तमान अनुभव या चेतन में नहीं होते हैं परन्तु थोडा़ प्रयास करने पर वे हमारे चेतन में आ जाते हैं अर्ध्दचेतन को अवचेतन तथा सुलभ स्मृति के नाम से भी जाना जाता है।

उदाहरण जैसे आप अपनी किसी किताब को नहीं पाते हैं और थोड़ी देर के लिए परेशान हो जाते हैं फिर कुछ देर तक सोचने के बाद पता चलता है कि वह किताब आपने अपने मित्र को दी थी जो की अभी उसके पास ही है।

अर्ध्दचेतन की विशेषताएं
  1. अर्ध्दचेतन चेतन से बड़ा तथा अचेतन से छोटा होता है।
  2. अर्ध्दचेतन चेतन तथा अचेतन के बीच पुल का काम करता है अर्थात अचेतन से चेतन में जाने वाली इच्छाएं भाव एवं विचार आदि अर्ध्दचेतन से होकर ही गुजरते हैं।
  3. अर्ध्दचेतन तथा चेतन के बीच का पर्दा कमजोर होता है यही कारण है कि अर्ध्दचेतन में मौजूद भाव या विचार थोडा़ सा प्रयास करने पर चेतन में आ जाते हैं।

अचेतन

फ्रायड के अनुसार मन का सबसे बड़ा एवं गहरा भाग अचेतन है तथा यह मन का सबसे महत्वपूर्ण भाग है।

अचेतन का शाब्दिक अर्थ है जो चेतन या चेतना से परे हो। हमारे कुछ अनुभव या विचार ऐसे होते हैं जो न तो हमारी चेतन में होते हैं और न ही अर्ध्दचेतन में। ऐसे विचार अचेतन में होते हैं।
अचेतन मन में रहने वाले विचार का स्वरूप कामुक, असामाजिक, अनैतिक तथा घृणित होता है। क्योंकि ऐसे विचार एवं इच्छाओं को दिन-प्रतिदिन की जिदंगी में पूरा करना संभव नहीं होता है इसलिए इनको चेतन से हटाकर अचेतन में दमित कर दिया जाता है। ये विचार अचेतन में जाकर समाप्त नही होते हैं बल्कि कुछ देर तक निष्क्रिय रहने के पश्चात चेतन में आने का प्रयत्न करते रहते हैं और इन इच्छाओं को चेतन में आने से अहं रोकता है। लेकिन कुछ ऐसे अवसर (जैसे स्वप्न, दैनिक जीवन की मनोविकृतियां, सम्मोहन आदि) आते हैं जब ऐसी इच्छाएं रूप बदलकर चेतन में प्रवेश कर जातीं हैं। जहां अचेतन की अनुभूतियां या विचार चेतन में व्यक्त हो जातीं हैं।
उदाहरण- 
जैसे किसी मित्र के घर पर यदि आप किताब छोड़कर चले आते हैं तो फ्रायड के अनुसार आप में उस मित्र से पुनः मिलने की एक इच्छा रहती है जो अचेतन में होती है वही इच्छा रूप बदलकर (अर्थात किताब मित्र के घर छोड़ देने के रूप में) चेतन में व्यक्त हो रही है।

अचेतन की विशेषताएं
  1. अचेतन मन चेतन तथा अर्ध्दचेतन से बड़ा होता है।
  2. अचेतन में कामुक, अनैतिक एवं असामाजिक इच्छा मौजूद होती है।
  3. अचेतन का स्वरूप गत्यात्मक होता है अर्थात अचेतन की इच्छाएं चेतन में आने की कोशिश करती रहती हैं।
  4. अचेतन व्यक्ति के नियंत्रण से बाहर होता है।
  5. अचेतन अपनी इच्छाओं की अभिव्यक्ति स्वप्न तथा दैनिक जीवन की मनोविकृतियों के रूप में करता है।

मन का गत्यात्मक या संरचनात्मक पहलू

फ्रायड के अनुसार मन के गत्यात्मक पहलू से तात्पर्य उन साधनों से होता है जिसके द्वारा मूल प्रवृत्तियों से उत्पन्न मानसिक संघर्षो का समाधान होता है। 
मूलप्रवृत्ति से तात्पर्य वैसे जन्मजात शारीरिक उत्तेजना से होता है जिसके द्वारा व्यक्ति के सभी तरह के व्यवहार निर्धारित किए जाते हैं। 
फ्रायड ने मूल प्रवृत्ति को दो भागों में बांटा है -
जीवन मूल प्रवृत्ति तथा मृत्यु मूल प्रवृत्ति।

जीवन मूल प्रवृत्ति द्वारा व्यक्ति सभी तरह के रचनात्मक कार्य तथा मृत्यु मूल प्रवृत्ति द्वारा व्यक्ति सभी तरह के विध्वंसात्मक तथा आक्रामक व्यवहारों का निर्धारण होता है। 
सामान्य व्यक्तित्व में इन दोनों प्रवृत्तियों में संतुलन बना रहता है जब इन परस्पर विरोधी मूलप्रवृत्तियों में संघर्ष होता है तो व्यक्ति उनका समाधान करने की कोशिश करता है। 
इस तरह के समाधान के लिए फ्रायड ने तीन प्रतिनिधियों का वर्णन किया है 
  1. उपाहं (id)
  2. अहं (Ego)
  3. पराहं (Super Ego)
Id, Ego , Super Ego

उपाहं

1. उपाहं में जीवन मूल प्रवृत्ति तथा मृत्यु मूल प्रवृत्ति दोनों पायी जाती है। 

जैसे एक बच्चा अपने खिलौने से खेलता है और मन भर जाने पर पटककर तोड़ देता है इन दोनों ही कार्यों से बच्चों को आनन्द मिलता है।

2. उपाहं का सम्बंध बाह्य वातावरण की वास्तविकताओं से नहीं होता है। 
जैसे जब कोई बच्चा हाथी देखने का निश्चय कर लेता है तो वह हाथी देखने के लिए लालायित रहता है चाहे उस समय हाथी दिखलाना संभव हो या नहीं।

3. उपाहं आनन्द सिध्दांत द्वारा निर्देशित होता है। उपाहं का उद्देश्य सिर्फ सुख प्राप्त करना होता है इसलिए उपाहं केवल सुख प्रदान करने वाली इच्छाओं को ही जन्म देती है चाहे वे इच्छाएं सामाजिक रूप से अनुचित एवं अविवेकपूर्ण ही क्यों न हो।
जैसे जब एक बच्चा हाथी देखने का इच्छा प्रकट करता है तो वह कोसों दूर चलकर भी हाथी देखने जाने से नही हिचकिचाता है।

4. उपाहं अतार्किक होता है क्योंकि इसमें परस्पर विरोधी इच्छाएं संचित होती है। 
जैसे किसी व्यक्ति में एक महिला को जान से मार देने की भी इच्छा हो सकती है परन्तु साथ ही साथ उसी महिला के साथ यौन संबंध की भी इच्छा उसमें हो सकती है।

5. उपाहं अनैतिक होता है उपाह को सही गलत का ज्ञान नहीं होता है और उसे यह भी पता नहीं होता कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं। यही कारण है कि एक छोटा बच्चा बिच्छू तक को हाथ में पकड़ लेने में नहीं हिचकिचाता है।

6. उपाहं असंगठित होता है क्योंकि उपाह की अनुभूतियां एक दूसरे से संबंधित नहीं होती है। 
जैसे यदि किसी बच्चे का हाथ एक बार गर्म स्टोव को स्पर्श कर लेने से जल जाता है तब पर भी वह कुछ समय बाद स्टोव के सामने होने पर स्टोव को छूने की कोशिश करता है।

7. उपाहं पूर्णतः अचेतन होता है इसलिए इसमें अनैतिक, असामाजिक एवं अवास्तविक प्रवृत्ति पायी जाती है।

अहं
जन्म के कुछ दिन बाद तक बच्चा पूर्णतः उपाहं की प्रवृत्ति द्वारा नियंत्रित होता है परन्तु सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों के कारण ऐसी प्रवृत्ति एवं इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो पाती है। इसके फलस्वरूप व्यक्ति को निराशा का अनुभव होता है और उनका संबंध वास्तविकता से स्थापित होता है इस प्रक्रिया में उसमें अहं का विकास होता है। 

अहं मन का वह हिस्सा होता है जिसका संबंध वास्तविकता से होता है तथा जो बचपन के उपाहं के प्रवृत्तियों से ही जन्म लेता है अहं को व्यक्तित्व का निर्णय लेने वाला या कार्यकारिणी शाखा माना गया है चूंकि अहं अंशतः चेतन, अंशतः अर्ध्दचेतन तथा अंशतः अचेतन होता है इसलिए अहं द्वारा इन तीनों स्तरों पर ही निर्णय लिया जाता है।

अहं व्यक्ति के आवश्यकता की पूर्ति करने तथा अन्य संज्ञानात्मक एवं बौद्धिक कार्यों को करने में तिकोणी संघर्ष में घिर जाता है अहं इन कार्यों को करने में उपाहं, पराहं एवं वास्तविक दुनिया के मांगो का ध्यान रखता है उपाहं एवं पराहं के मांग अवास्तविक होते हैं दूसरे तरफ बाह्य दुनिया की मांग वास्तविक एवं सामाजिक नियमों के अनुकूल होता है।

यदि अहं बाह्य दुनिया के वास्तविकताओं के पक्ष में निर्णय लेता है तो इससे उपाहं एवं पराहं की इच्छाओं एवं प्रवृत्तियों की अवहेलना होती है और इनकी इच्छाओं एवं प्रवृत्तियों के पक्ष में निर्णय लेता है तो दुनिया के वास्तविकता की उपेक्षा होती है फलस्वरूप अहम के सामने एक संघर्षमय परिस्थिति होती है जहां ऐसा निर्णय करना होता है जिससे इन दोनों पक्षों को समान संतुष्टि मिले। 
व्यक्तित्व की कार्यकारिणी शाखा के रूप में अहं किसी संघर्षमय परिस्थिति से उत्पन्न चिंता को कम करने के लिए का (defense mechanism) सहारा लेता है इस (defense mechanism) के कई प्रकार है जिसमें से दमन एक प्रमुख प्रकार है।

अहं की विशेषताएं 
  1. अहं व्यक्तित्व की कार्यकारिणी शाखा के रुप में कार्य करता है अतः इसके द्वारा सभी महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाते हैं।
  2. अहं अंशतः चेतन, अंशतः अर्ध्दचेतन तथा अंशतः अचेतन होता है।
  3. अहं वास्तविक सिध्दांत द्वारा निर्देशित एवं नियंत्रित होता है।
  4. अहं का संबंध नैतिकता से नहीं होता है।

3. पराहं (Super ego)
पराहं अहं से ऊँचा (above-I) होता है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है वह अपना परिचय माता-पिता के साथ स्थापित करते जाता है जिसके परिणामस्वरूप वह यह सीख लेता है कि क्या उचित है तथा क्या अनुचित है। 
इस तरह से बचपन में समाजीकरण के दौरान बच्चा माता-पिता द्वारा दिये गये उपदेशों को अपने अहं में आत्मसात कर लेता है और यही बाद में पराहं का रूप ले लेता है। 
पराहं विकसित होकर एक तरफ उपाहं की कामुक,  आक्रामक एवं अनैतिक प्रवृत्तियों पर रोक लगाता है तो दूसरी ओर अहं को वास्तविक लक्ष्यों से हटाकर नैतिक लक्ष्यों की ओर ले जाता है। इसी तरह के सीखना से पराहं के विकास की शुरूआत होती है। 

पराहं के दो उपतंत्र होते हैं 
1. अन्तः करण या विवेक 
जब माता पिता द्वारा बच्चों को अनुचित कार्य करने पर सजा मिलती है तो इससे उनमें विवेक विकसित होता है 
2. अहं आदर्श 
जब बच्चों को उचित कार्य करने पर माता पिता द्वारा पुरस्कार दिया जाता है तो उनमें अहं आदर्श विकसित होता है।

पराहं को व्यक्तित्व का नैतिक शाखा माना गया है जो व्यक्ति को यह बतलाता है कि कौन कार्य नैतिक है तथा कौन कार्य अनैतिक है। 
पराहं आदर्शवादी सिद्धान्त द्वारा निर्देशित एवं नियंत्रित होता है। 
एक पूर्णतः विकसित पराहं व्यक्ति के कामुक एवं आक्रामक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करने के लिए दमन का प्रयोग करता है। हालाँकि वह दमन का प्रयोग स्वयं नहीं करता है बल्कि अहं को आदेश देकर दमन का प्रयोग करवाता है। यदि अहं इस आदेश का पालन नहीं करता है, तो इससे व्यक्ति में दोष-भाव (guilt-feeling) उत्पन्न हो जाता है। 

उपाहं के ही समान पराहं को भी अवास्तविक कहा गया है क्योंकि पराहं इस बात का ख्याल नहीं करता कि उसके नैतिक आदेशों को पूरा करने में अहं को वातावरण में उपस्थित किन-किन कठिनाइयों का सामना करना होता है। पराह अपने नैतिक आदेशों के लक्ष्य को पूरा करने के लिए अहं को अपनी ओर खींचने की भरपूर कोशिश करता है। अहं के समान ही पराहं चेतन, अर्द्धचेतन एवं अचेतन तीनों ही होता है।


पराहं की विशेषताएं 
  1. पराहं में नैतिक एवं आदर्शवादी विचार होते हैं।
  2. पराहं, उपांह के ही समान अवास्तविक होता है।
  3. पराहं चेतन, अर्ध्दचेतन तथा अचेतन तीनों स्तरों पर कार्य करता है।
  4. यह आदर्शवादी सिध्दांत द्वारा निर्देशित एवं नियंत्रित होता है।
  5. पराहं व्यक्ति के अनैतिक एवं कामुक प्रवृत्तियों पर अहं द्वारा दमन करवाता है।

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