द्विध्रुवीय विकृति : प्रकार, लक्षण, हैतुकी (कारण) और उपचार

द्विध्रुवीय विकृति वैसी विकृति को कहा जाता है जिसमें रोगी में बारी-बारी से विषाद तथा उन्माद दोनों ही तरह की अवस्थाएं होती पायी जाती है यही कारण है कि इसे उन्मादी-विषादी विकृति भी कहा जाता है।

विषाद या विषादी अवस्था

विषाद से तात्पर्य मनोदशा में उत्पन्न उदासी से होता है। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें व्यक्ति उदास एवं सभी तरह के क्रियाओं में रुचि या आनन्द खो चुका होता है इसके अतिरिक्त व्यक्ति में थकान, नींद में बदलाव(कम या ज्यादा), भूख में बदलाव, ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई, आत्म सम्मान में कमी तथा आत्मघाती विचार जैसे लक्षण पाये जाते हैं।


उन्माद या उन्मादी घटना

उन्माद एक ऐसी अवस्था है जिसमें व्यक्ति का मनोदशा अत्यधिक उत्तेजित, ऊर्जावान एवं चिड़चिड़ा हो जाता है। यह इतना तीव्र होता है कि इससे व्यक्ति का व्यवहार असामान्य तथा खतरनाक हो जाता है। यह व्यक्ति के सामाजिक एवं व्यवसायिक कार्यों को बहुत अधिक बाधित करता है। यह गंभीर होता है इसलिए रोगी को अस्पताल में भर्ती करके इसका उपचार किया जाता है।

DSM IV (TR) में उन्माद के निम्नांकित लक्षण बतलाये गये हैं —
1. एक सप्ताह तक रोगी की मनोदशा काफी बढ़ा चढ़ा एवं चिड़चिड़ा बना हुआ हो।
2. मनोदशा क्षुब्धता की अवधि में निम्नांकित में से तीन या उससे अधिक लक्षण व्यक्ति में उपस्थित हो (यदि मनोदशा में सिर्फ चिड़चिड़ापन हो तो चार लक्षण अवश्य उपस्थित हो)—
  • बढ़ा हुआ आत्म सम्मान
  • नींद में कमी 
  • पहले की तुलना में अधिक बातूनी होना
  • विचारों में उड़ान होना 
  • ध्यान भंगता
  • मनोपेशीय क्रियाओं में वृध्दि होना
  • ऐसे कार्यों में सम्मिलित होना जो आनन्ददायक तो हो परन्तु उनसे दर्दनाक परिणामों की उच्च संभावना हो
3. उक्त लक्षण ऐसे हों जो व्यक्ति के सामाजिक एवं व्यवसायिक समायोजन में बाधा डालता हो।
4. उक्त लक्षण का कारण कोई द्रव्य का प्रभाव न हो।


अल्प उन्माद या अल्पोन्मादी घटना 

इसमें व्यक्ति एक खास अवधि तक उत्तेजित, ऊर्जावान एवं चिड़चिड़े मनोदशा का अनुभव करता है यह उन्माद का हल्का रूप होता है। इससे व्यक्ति के व्यक्तिगत एवं व्यवसायिक कार्यों में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती है। यह कम गंभीर होता है इसलिए इसमें रोगी को अस्पताल में भर्ती करके उपचार करने की आवश्यकता नहीं होती है।


द्विध्रुवीय विकृति के प्रकार 

DSM IV (TR) में द्विध्रुवीय विकृति के निम्नांकित तीन प्रकार बतलाये गये हैं —

1. साइक्लोथाइमिक विकृति 

यह एक ऐसी मनोदशा क्षुब्धता की अवस्था है जिसमें लम्बे समय अर्थात कम से कम दो वर्षों तक विषाद और अल्प उन्माद के लक्षण अवश्य दिखते हैं। इसमें विषाद एवं अल्पोन्माद दोनों के लक्षण पाये जाते हैं परंतु यह विकृति ज्यादा गंभीर नहीं होती है।

DSM IV (TR) में इस विकृति की चार कसौटियां बतलायी गयी हैं—
  1. व्यक्ति में कम से कम दो साल की अवधि में कई बार अल्प उन्माद (हाइपोमेनिया) और विषाद (डिप्रेशन) के लक्षण दिखाई दें।
  2. दो साल में दो महीने से ज्यादा समय बिना लक्षणों के नहीं  बीते हों।
  3. रोगी को गंभीर विषाद (मेजर डिप्रेसिव डिसाॅर्डर) का अनुभव हुआ हो।
  4. पहले दो साल में उन्मादी घटना का अनुभव न हुआ हो।
इस विकृति की शुरुआत किशोरावस्था या आरंभिक वयस्कावस्था में होती है साइक्लोथाइमिक विकृति के कुछ रोगी आगे चलकर द्विध्रुवीय विकृति से ग्रसित हो जाते हैं।

2. द्विध्रुवीय एक विकृति

इस विकृति में रोगी को एक या एक से अधिक उन्मादी तथा विषादी अवस्था का अनुभव हुआ होता है।
बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो एक या एक से अधिक उन्मादी घटना का अनुभव तो किए होते हैं परन्तु उन्हें कोई भी विषादी घटना का अनुभव नहीं होता है। इसके बावजूद भी उन्हें द्विध्रुवीय एक विकृति का रोगी माना जाता है क्योंकि ऐसा उम्मीद किया जाता है कि उन्हें कभी न कभी विषाद का अनुभव अवश्य होगा।

इन रोगियों में उन्मादी तथा विषादी घटना बारी-बारी से होती है परन्तु कुछ ऐसे भी रोगी होते हैं जिनमें एक ही दिन में उन्मादी एवं विषादी दोनों तरह के लक्षण दिखते हैं।

3. द्विध्रुवीय दो विकृति

द्विध्रुवीय दो विकृति में DSM IV के अनुसार तीन प्रमुख लक्षण होते हैं —
  1. रोगी को एक या एक से अधिक बड़ा विषादी घटना का अनुभव हुआ हो।
  2. रोगी को कम से कम एक अल्प उन्मादी घटना का अनुभव हुआ हो।
  3. रोगी को उन्मादी घटना की अनुभूति नहीं हुई हो।
इस विकृति की शुरुआत 15 से 44 वर्ष की उम्र में होती है तथा पहली घटना उन्मादी या विषादी में से कुछ भी हो सकता है। इसमें उन्मादी घटना का औसत समय 2 से 3 महीनों का होता है परन्तु विषादी घटना का औसत समय इससे थोड़ा बड़ा होता है। इस विकृति में दोनों घटनाएं कम गंभीर एवं लघु अवधि के लिए होते हैं।
यदि किसी व्यक्ति को एक साल में चार या इससे अधिक बार मनोदशा क्षुब्धता होती है तो फिर चाहे द्विध्रुवीय एक विकृति हो या दो। इसे एक नये नाम द्रुत चक्र (rapid cycling) से जाना जाता है।

यदि रोगी का मनोदशा मौसम के प्रारंभ होने के साथ परिवर्तित होता है (जैसे अत्यधिक ठंड का मौसम या गर्मी का मौसम प्रांरभ होने के साथ) तो उसे सामाजिक या मौसमी भावात्मक विकृति (Seasonal Affective Disorder or SAD) का नाम दिया जाता है। 
द्विध्रुवीय एक विकृति, द्विध्रुवीय दो विकृति से अधिक सामान्य होता है द्विध्रुवीय दो विकृति पुरुषों की तुलना में महिलाओं में अधिक पायी जाती है।

द्विध्रुवीय एक विकृति तथा द्विध्रुवीय दो विकृति में मुख्य अंतर यह है कि द्विध्रुवीय दो विकृति में उन्मादी व्यवहार की गंभीरता द्विध्रुवीय एक विकृति के उन्मादी व्यवहार से कम होती है।
 

उदाहरण 

डेब्बी एक 21 वर्षीय अविवाहित महिला थी जिसको उन्मादी घटना का अनुभव करने पर मानसिक अस्पताल में भर्ती कराया गया था। जब वह कॉलेज में थी तो उसे विषादी अनुभव के लिए मनश्चिकित्सा दी गई थी उसे कालेज के बाद एक स्थानीय समाचार पत्र में नौकरी मिल गयी थी। मानसिक अस्पताल में भर्ती होने से पहले उसे उन्मादी दौरा पड़ा था इसके बाद डेब्बी अचानक अपनी नौकरी से त्यागपत्र देकर अपने पुरुष मित्र के पास चली गई। बिना किसी वैकल्पिक रोजगार के नौकरी से त्यागपत्र देना यह उसका पहला घटिया निर्णय था। उसे नींद की शिकायत होने लगी और मनोदशा काफी चिड़चिड़ा हो गया। अपने मित्र से कहा-सुनी करने के बाद, वह घर लौटी और माता-पिता से लगातार झगड़ने लगी। एक दिन वह टेनिस क्लब जाते समय दो अजनबियों के साथ पार्टी में चली गई। जहाँ उसने रातभर रहकर तीन अजनबियों के साथ यौन संबंध बनाए। घर वापस आकर वह फिर पिता से झगड़ गयी। इसलिए उसके पिता को सहायता के लिए पुलिस बुलानी पड़ी। जिसके बाद पुलिस उसे मनोरोग विशेषज्ञ के पास ले गयी। विशेषज्ञ ने उसकी असंगत और उग्र मनोदशा को देखकर अस्पताल में भर्ती करने का सलाह दिया। अस्पताल में डेब्बी सामान्य रूप से बात तो करती थी लेकिन उसके विचारों में बड़प्पन था और वह पुरुष रोगियों के साथ अत्यधिक निकटता दिखाती थी।
इस केस अध्ययन से पता चलता है कि डेब्बी द्विध्रुवीय एक विकृति से पीड़ित थी जिसमें स्कूल में विषाद और कॉलेज तथा नौकरी के दौरान उन्मादी घटनाएँ हुईं।

द्विध्रुवीय विकृति के कारण


1. न्यूरोट्रांसमीटर

न्यूरोट्रांसमीटर जैसे नोरपाइनफ्राइन (norepinephrine) की मात्रा अधिक होने से व्यक्ति में उन्मादी अवस्था तथा निम्न स्तर होने पर विषादी अवस्था उत्पन्न होती है। 
जबकि एक दूसरे न्यूरोट्रांसमीटर सेरोटोनिन (serotonin) के साथ नोरपाइनफ्राइन का स्तर निम्न होता है तो इससे रोगी में विषाद उत्पन्न होता है इसके विपरित जब सेरोटोनिन का स्तर कम और नोरपाइनफ्राइन का स्तर उच्च होता है तो इससे उन्मादी अवस्था उत्पन्न होती है।

न्यूरोट्रांसमीटर

2. सोडियम आयन क्रिया

जब सोडियम आयन का संचरण न्यूरान्स झिल्ली में ठीक ढंग से होता है तो इससे न्यूरान न तो जरूरत से ज्यादा किसी उद्दीपक से उत्तेजित होता है और न उसके प्रति प्रतिरोध दिखलाता है। यदि इस अवस्था में कोई असामान्यता होती है तो व्यक्ति में उन्माद उत्पन्न हो जाता है।

सोडियम आयन क्रिया

दूसरी ओर यदि सोडियम आयन का संचरण न्यूरान झिल्ली में ठीक ढंग से नहीं होता है। तो न्यूरान बहुत आसानी से उत्तेजित हो जाता है या फिर बहुत मुश्किल से उत्तेजित होता है। यदि इस अवस्था में कोई असामान्यता होती है तो इससे व्यक्ति में विषाद उत्पन्न होता है।


3. जननिक कारक

कुछ अध्ययनों से पता चला है कि द्विध्रुवीय विकृति का कारण आनुवांशिकता होता है।

जिन लोगों के माता-पिता या सगे संबंधियों में द्विध्रुवीय विकृति पहले हो चुका होता है उनमें यह रोग होने की संभावना अधिक होती है।

जननिक कारक

एकांडी जुडवा बच्चों में से यदि किसी एक व्यक्ति को द्विध्रुवीय विकृति हो जाता है तो युग्म के दूसरे व्यक्ति को भी यह रोग होने की संभावना अधिक होती है जबकि भ्रातीय जुडवा व्यक्तियों में ऐसी संभावना बहुत कम होती है।

4. तनाव

अध्ययनों से पता चला है कि द्विध्रुवीय विकृति का कारण तनाव भी होता है ऐसे व्यक्ति जिनमें पहले यह रोग हो चुका होता है ऐसे व्यक्तियों में तनावपूर्ण घटनाएं उन्मादी अवस्था उत्पन्न कर देती है। यहां तक कि विषादी या उन्मादी रोगियों के साथ रहना भी तनावपूर्ण होता है जिससे सामान्य व्यक्तियों में भी द्विध्रुवीय विकृति होने की संभावना अधिक होती है।

द्विध्रुवीय विकृति का उपचार


1. लिथियम चिकित्सा

इस चिकित्सा में चिकित्सक रोगी को उचित मात्रा में लिथियम नामक औषध लेने की सलाह देते हैं। लिथियम एक औषध होता है जो न्यूरोन के संधिस्थल (synapse) के क्रियाओं में परिवर्तन लाकर नोरपाइनफ्राइन तथा सेरोटोनिन जैसे न्यूरोट्रांसमीटर का स्राव करता है। जिससे द्विध्रुवीय विकृति के उन्मादी तथा विषादी दोनों अवस्थाओं में सुधार होता पाया जाता है।

लिथियम चिकित्सा

2. योजन मनश्चिकित्सा

लिथियम अकेले द्विध्रुवीय विकार के उपचार के लिए पूरी तरह प्रभावी नहीं है। 30 से 40% रोगियों में लिथियम से लाभ नहीं होता है या लक्षण फिर से लौट आते हैं। करीब 50% रोगी ऐसे होते हैं जो सही मात्रा में लिथियम नहीं लेते हैं और कुछ बीच में ही छोड़ देते हैं। तथा कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें चिकित्सकों द्वारा ही गलत मात्रा में खाने की सलाह दी जाती है। इन समस्याओं को हल करने के लिए मनश्चिकित्सकों ने लिथियम औषध को मनोचिकित्सा के साथ प्रयोग करने का सलाह दिया, जिसे योजन मनश्चिकित्सा कहते हैं।

योजन चिकित्सा

द्विध्रुवीय विकृति के रोगियों को लिथियम औषध के साथ विभिन्न तरह की मनोचिकित्सा (जैसे वैयक्तिक, सामूहिक तथा पारिवारिक चिकित्सा के रूप में) दी जाती है। 
इस चिकित्सा से रोगी के पारिवारिक तथा सामाजिक संबंधों,  शिक्षा और समस्या समाधान के तरीके को बेहतर बनाया जाता है। जिससे रोगी में आत्मविश्वास उत्पन्न होता है और वे जल्दी ठीक हो जाते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें