भीषिका विकृति में रोगी को अचानक एक अव्याख्येय भीषिका या आतंक का दौरा पड़ता है जब व्यक्ति को इस तरह का दौरा हफ्ता में कम से कम एक या दो बार अवश्य ही पड़ता है तो DSM IV (TR) के अनुसार उसमें भीषिका विकृति उत्पन्न हो गया है।
भीषिका दौरा को DSM IV (TR) में कुछ प्रमुख दैहिक संवेदनाओं के रूप में परिभाषित किया गया है। इन दैहिक संवेदनाओं में यदि कम से कम चार दैहिक संवेदन भी कोई व्यक्ति अनुभव करता है तो उसे भीषिका दौरा कहा जायेगा। ये संवेदन इस प्रकार हैं -
- ह्रदय गति का तीव्र या कम होना
- पसीना आना
- मांसपेशियों में कंपन्न उत्पन्न होना
- सांस की गति रूकने या मंद होने का अनुभव होना
- छाती में दर्द या तकलीफ होना
- दम घुटने का अनुभव करना
- पेट में दर्द होना तथा मिचली का अनुभव
- बेहोशी होना या चक्कर आने का अनुभव करना
- अपने आप से अलग हो जाने का अनुभव करना
- अपने आप पर नियंत्रण खोने का डर होना या सनकी होना
- मरने का डर होना
- सुन्न या झुनझुनी संवेदन का होना
- कंपकंपी या अत्यधिक गर्मी का अनुभव होना
भीषिका दौरा सांकेतिक तथा असांकेतिक दोनों ही तरह का होता है।
सांकेतिक भीषिका दौरा कोई विशेष परिस्थिति या उद्दीपक से संबंधित होता है और जब व्यक्ति का उस उद्दीपक या परिस्थिति से सामना होता है तो उसमें दौरा पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में तब मनोश्चिकित्सक उसमें दुर्भिति रोग (Phobia) उत्पन्न होने का अनुमान लगाते हैं।
भीषिका दौरा अप्रत्याशित ढंग से भी होता है और किसी वस्तु या परिस्थिति से संबंधित नहीं होता है तो यह समझा जाता है कि व्यक्ति में भीषिका विकृति (Panic Desorder) विकसित हो गयी है।
DSM IV (TR) में भीषिका विकृति को एगोराफोबिया के साथ या उसके बिना भी होने की बात कही गई है।
जब भीषिका विकृति के रोगी कहीं आम स्थानों (Public Places) जैसे बस अड्डे, रेलवे प्लेटफार्म, स्कूल, अस्पताल जाने में इसलिए घबराता है कि वहां उसे दौरा पड़ने पर कोई देखने वाला नहीं होगा। तो ऐसी परिस्थिति में यह समझा जाता है कि उसमें भीषिका विकृति एगोराफोबिया के साथ उत्पन्न हुआ है।
परन्तु जब रोगी आम स्थानों पर जाने से नही घबराता है तो ऐसा समझा जाता है कि उसमें भीषिका विकृति बिना एगोराफोबिया के ही उत्पन्न हुआ है।
मनोचिकित्सकों की राय है कि अधिकतर केसेज में भीषिका विकृति एगोराफोबिया के लक्षण के साथ उत्पन्न होता है।
भीषिका दौरा अप्रत्याशित ढंग से भी होता है और किसी वस्तु या परिस्थिति से संबंधित नहीं होता है तो यह समझा जाता है कि व्यक्ति में भीषिका विकृति (Panic Desorder) विकसित हो गयी है।
DSM IV (TR) में भीषिका विकृति को एगोराफोबिया के साथ या उसके बिना भी होने की बात कही गई है।
जब भीषिका विकृति के रोगी कहीं आम स्थानों (Public Places) जैसे बस अड्डे, रेलवे प्लेटफार्म, स्कूल, अस्पताल जाने में इसलिए घबराता है कि वहां उसे दौरा पड़ने पर कोई देखने वाला नहीं होगा। तो ऐसी परिस्थिति में यह समझा जाता है कि उसमें भीषिका विकृति एगोराफोबिया के साथ उत्पन्न हुआ है।
परन्तु जब रोगी आम स्थानों पर जाने से नही घबराता है तो ऐसा समझा जाता है कि उसमें भीषिका विकृति बिना एगोराफोबिया के ही उत्पन्न हुआ है।
मनोचिकित्सकों की राय है कि अधिकतर केसेज में भीषिका विकृति एगोराफोबिया के लक्षण के साथ उत्पन्न होता है।
भीषिका विकृति के एक केस का उदाहरण
(Spitzer, 1983) एवं उनके सहयोगियों द्वारा प्रस्तुत" एक महिला मिसेज वाट्सन जिनकी आयु 45 वर्ष की थी और उनके दो बच्चे भी थे। उन्हें अपने चाचा से बचपन से ही काफी लगाव था क्योंकि उनके पालन-पोषण में चाचा की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। कुछ महीना पहले उनके चाचा की मृत्यु हो गयी थी जिससे उन्हें काफी मानसिक आघात पहुँचा था। कुछ दिन पहले जब वह अपने काम से घर लौट रही थी तो रास्ते में ही उन्हें भीषिका दौरा पड़ा।
जाड़े के मौसम में वह पसीने-पसीने हो गयी। उन्हें अनुभव होने लगा कि उनका हृदय गति रुकने वाला है तथा उनकी साँस की गति काफी अनियमित ढंग से चलने लगी। उन्हें अवास्तविकता तथा अपने आप से अलग होने का अनुभव होने लगा। अगल-बगल के लोगों से सहायता माँगकर वह किसी तरह नजदीक के अस्पताल में पहुँची। जहाँ उनका मेडिकल जाँच किया गया और किसी तरह की कोई असामान्यता नहीं पायी गयी। सिर्फ इतना ही पाया गया कि उनका हृदय गति कुछ अनियमित था जो जाँच के ही दौरान फिर सामान्य हो गया।
इसी तरह का दूसरा भीषका दौरा फिर उन्हें घर पर पड़ा जब वह खाना बना रही थी। अगले कुछ सप्ताहों में उन्हें घर में ऐसा ही और दौरा पड़ा। जैसे-जैसे उनमें भीषका दौरा पड़ने की संख्या बढ़ते गयी उन्हें घर से बाहर जाने में डर उत्पन्न हो गया। हमेशा वह इस बात से अब डरने लगी कि अकेले वह बाहर नहीं जाएगी क्योंकि सम्भव है कि उन्हें इस ढंग का भीषका दौरा पड़ जाए तो कौन उन्हें बचाएगा। फलतः उन्होंने अपने सामाजिक कार्यों एवं मनोरंजन सम्बद्ध बाहर के कार्यों में काफी कटौती कर दिया।
बहुत दिनों तक उनका उपचार किये जाने पर फिर वह महिला अपने सामान्य जीवन की ओर लौट गयी और फिर कभी उसे भीषका दौरा नहीं पड़ा। उसके इस उपचार में अन्य प्रविधियों के अतिरिक्त विषाद-विरोधी औषध जैसे इमीप्रेमाईन की महत्वपूर्ण भूमिका बतलायी गयी।"
उक्त केस उदाहरण में महिला में भीषका विकृति के साथ-साथ एगोराफोबिया के भी लक्षण स्पष्ट हैं।
भीषिका विकृति के कारण (etiology of Panic Desorder)
भीषिका विकृति के कई कारण बतलाये गये हैं जिन्हें मोटे तौर पर निम्नांकित दो प्रमुख भागों में बांटा गया है1. जैविक कारक
(Torgersen, 1983) के अनुसार भीषिका विकृति एकांडी जुड़वाँ बच्चों (identical twin children) की अपेक्षा भ्रात्रीय जुड़वाँ बच्चों (fraternal twin children) में काफी अधिक होती है।
इन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि एकांडी जुड़वाँ युग्म में से एक बच्चे को भीषिका विकृति होती है तो दूसरे बच्चे में यह विकृति होने की संभावना 31% बढ़ जाती है।
परन्तु भ्रात्रीय जुड़वाँ युग्म में से यदि किसी एक को भीषिका विकृति होती है तो युग्म के दूसरे बच्चे में इस विकृति के होने की सम्भावना न के बराबर होती है।
इससे स्पष्ट पता चलता है कि भीषिका विकृति का एक आनुवांशिक आधार होता है।
एकांडी जुड़वाँ (Identical twins)
जब एक निषेचित अंडा दो अलग-अलग भ्रूणों में विभाजित हो जाता है तो इसके परिणामस्वरूप एक ही आनुवंशिक संरचना वाले जुड़वाँ बच्चे पैदा होते हैं। आमतौर पर इनका लिंग समान होता है। एकांडी जुड़वाँ अपने डीएनए का 100% साझा करते हैं।
भ्रात्रीय जुड़वाँ (Fraternal twins)
जब दो अलग-अलग अंडों को दो अलग-अलग शुक्राणु निषेचित करते है तो इससे भिन्न आनुवंशिक संरचना वाले जुड़वाँ बच्चे पैदा होते हैं। जो किसी भी अन्य भाई-बहन के समान होते हैं। भ्रात्रीय जुड़वाँ सामान्य भाई-बहनों की तरह केवल 50% डीएनए साझा करते हैं।
(Charney & Heninger, 1986) के अनुसार जब व्यक्ति के मस्तिष्क का वह सर्किट जो आपातकालीन प्रतिक्रिया को धीमा करता है या बन्द करता है। उसकी क्षमता कमजोर हो जाती है तो इससे व्यक्ति में भीषिका विकृति उत्पन्न होने की सम्भावना बढ़ जाती है।
(Ley, 1987) के अनुसार अतिश्वसन के कारण व्यक्ति का स्वायत्त तंत्रिका तंत्र उत्तेजित हो जाता है जिससे व्यक्ति में भीषिका विकृति के सभी दैहिक लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं।
कुछ अध्ययन से यह भी पता चला है कि जब श्वसन वायु में कार्बन-डाई-ऑक्साइड की मात्रा सामान्य से अधिक होती है तो इससे भी भीषिका दौरा पड़ता है क्योंकि कार्बन-डाई-ऑक्साइड अधिक होने के कारण अतिश्वसन की अवस्था उत्पन्न होती है।
2. मनोवैज्ञानिक कारक
(Clark, 1989) के अनुसार भीषिका विकृति उत्पन्न होने का एक कारण यह भी है कि व्यक्ति अपने भीतर उत्पन्न शारीरिक संवेदनाओं का भ्रांतिपूर्ण व्याख्या करता है।
भीषिका विकृति के रोगी सामान्य चिंता अनुक्रियाओं जैसे तीव्र ह्रदय गति, दम फूलने की स्थिति तथा चक्कर आने की स्थिति को यह मान लेते हैं कि अब भीषिका दौरा पड़ने वाला है जबकि वास्तविकता में यह अन्य कारणों से उसमें होता है। ऐसे भ्रांतिपूर्ण व्याख्या से व्यक्ति में परेशानी और बढ़ जाती है और अन्त में उसमें भीषिका विकृति उत्पन्न हो जाता है।
भीषिका विकृति का उपचार
इसके उपचार के लिए कुछ औषधी का सफलतापूर्वक प्रयोग किया गया है जिसमें (tricyclic antidepressant drugs) और (anti anxiety drugs) जैसे (Alprozalam) से भीषिका विकृति कम होते पाया गया है और कुछ रोगियों में पूर्णतः समाप्त भी हो गया है।इसके अतिरिक्त (Barlow, Craske & Klosko, 1990) का विचार था कि शारीरिक संवेदनाओं की भ्रांत व्याख्या से ही व्यक्ति में भीषिका विकृति उत्पन्न होती है यदि इस भ्रांतिपूर्ण व्याख्या को ही बदल दिया जाए तो विकृति अपने आप दूर हो जाएगी।
अतः इन लोगों ने इसी तर्क के साथ रोगियों का उपचार करना शुरू कर दिया। इन्होंने उनको बताया की श्वसन गति में कमी, पसीना आना और ह्रदय गति का तीव्र होना आदि सामान्य चिंता के कारण आते हैं और यदि इन लक्षणों को गलती से ह्रदय आघात समझ लिया जाता है तो लक्षण और गंभीर हो जाते हैं और भीषिका दौरा पड़ने की सम्भावना बढ़ जाती है। अतः रोगियों को कहा गया कि इन लक्षणों को वह सामान्य चिंता ही समझें और इसके बाद उन्हें उन लक्षणों से निपटने के लिए प्रशिक्षण दिया गया।
उन्हें इस प्रशिक्षण के दौरान दिखलाया जाता था कि जिन दैहिक लक्षणों को वह ह्रदय आघात के लक्षण मान रहे थे वे वास्तव में सामान्य चिंता के लक्षण हैं। इस तरह रोगी अपने शारीरिक संवेदनों की सही व्याख्या करना सीख लेता है।
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