दुर्भीति का लक्षण, कारण तथा उपचार

दुर्भीति एक बहुत ही सामान्य चिंता विकृति है जिसमें व्यक्ति किसी ऐसे विशिष्ट वस्तु या परिस्थिति से सतत एवं असंतुलित मात्रा में डरता है जो वास्तव में व्यक्ति के लिए कोई खतरा या न के बराबर खतरा उत्पन्न करता है।
जैसे जिस व्यक्ति में मकड़ी से दुर्भीति उत्पन्न हो गया है वह उस कमरे में नहीं जा सकता जिसमें मकड़ी है स्पष्टतः मकड़ी एक ऐसा जीव है जो व्यक्ति के लिए कोई खतरा उत्पन्न नही करता है।

इस तरह से दुर्भीति में पाया गया डर दिन-प्रतिदिन के जीवन में पाये जाने वाले डर से भिन्न होता है दिन प्रतिदिन का डर सिर्फ उसी वस्तु या परिस्थिति से होता है जो वास्तव में खतरनाक होता है।

दुर्भीति के लक्षण

  1. व्यक्ति किसी वस्तु या परिस्थिति से वास्तविक खतरे के अनुपात से अधिक डरता है।
  2. व्यक्ति का उस वस्तु या परिस्थिति से सामना होने पर अत्यधिक चिंता या भीषिका दौरा भी उत्पन्न हो जाता है।
  3. व्यक्ति दुर्भीति उत्पन्न करने वाले वस्तु या परिस्थिति से दूर रहना पसंद करता है
  4. यदि उपरोक्त लक्षण किसी अन्य विशेष रोग से उत्पन्न नहीं हुए हों तभी इसे दुर्भीति कहा जायेगा।
उपर्युक्त प्रमुख लक्षणों के अतिरिक्त अन्य कई तरह के लक्षण भी रोगी में देखें जाते हैं जैसे तनाव, सिरदर्द, पीठ दर्द, पेट में गड़बड़ी तथा दौरे या आतंक की स्थिति में रोगी में व्यक्तित्व लोप, अवास्तविकता, विचित्रता आदि का भी अनुभव होता है।
दुर्भीति में विषाद के भी लक्षण देखे जाते हैं तथा कुछ रोगियों में गंभीर अन्तर्वैयक्तिक कठिनाइयां भी उत्पन्न हो जाती है तथा कुछ रोगियों में निर्णय लेने में कठिनाई होती है।


दुर्भीति के प्रकार

दुर्भीतियां कई प्रकार की होती है इन सभी दुर्भीति के तीन मुख्य सामान्य प्रकार बतलाये गये हैं।
  1. विशिष्ट दुर्भीति
  2. एगोराफोबिया
  3. सामाजिक दुर्भीति

1. विशिष्ट दुर्भीति

विशिष्ट दुर्भीति एक ऐसा असंगत डर होता है जो विशिष्ट वस्तु या परिस्थिति की उपस्थिति या उसके अनुमान मात्र से ही उत्पन्न होता है जैसे बिल्ली से डरना या मकड़ी से डरना। दुर्भीति का लगभग 3% ही विशिष्ट दुर्भीति होता है विशिष्ट दुर्भीति कई तरह के होते हैं जिन्हें चार प्रमुख भागों में बांटा गया है

I. पशु दुर्भीति
इसमें व्यक्ति विशेष पशुओं से डरने लगता है यह दुर्भीति महिलाओं में अधिक पाया जाता है इसकी शुरुआत बाल्यावस्था से ही होता है कुछ पशु दुर्भीति निम्नांकित हैं
  • बिल्ली से डर - Ailurophobia
  • कुत्ते से डर - Cynophobia
  • कीट से डर - Insectophobia
  • मकड़ी से डर - Arachnophobia
  • चिड़िया से डर - Avisophobia
  • घोड़ा से डर - Equinophobia
  • सांप से डर - Ophidiophobia
  • रोगाणु से डर - Mysophobia

II. अजीवित वस्तुओं से उत्पन्न दुर्भीति
इसमें रोगी कुछ अजीवित वस्तुओं से डरने लगता है यह दुर्भीति पशु दुर्भीति की अपेक्षा अधिक सामान्य है और पुरुष एवं महिला दोनों में समान रूप से पाई जाती है
  • आंधी तूफान से डर - Brontophobia
  • बंद जगहों से डर - Claustrophobia
  • ऊंचाई से डर - Acrophobia
  • अंधेरा से डर - Nyctophobia
  • आग से डर - Pyrophobia
  • अकेलेपन से डर - Monophobia
  • हवाई जहाज से यात्रा करने से डर - Aviaphobia
  • भीड़ से डर - Ochlophobia

III. बीमारी एवं चोट संबंधी दुर्भीति
इस तरह की दुर्भीति में व्यक्ति चोट जख्म या अन्य तरह की बिमारी से असंगत डरने लगता है उनमें इस बात का डर बना रहता है कि उसे जल्द ही अमुक बिमारी हो जायेगी इस तरह के डर से उसमें कुछ लक्षण जैसे छाती में दर्द तथा पेट में दर्द होने लगता है जिससे व्यक्ति समझता है कि उसे अमुक रोग हो जायेगा।

इस तरह के दुर्भीति की शुरुआत सामान्यतः मध्य आयु में होता है इस तरह की दुर्भीति को (Nosophobia) कहा जाता है।
  • मृत्यु से डर - Thanatophobia
  • कैंसर से डर - Cancerophobia
  • यौन रोगों से डर - Venerophobia

IV. रक्त दुर्भीति
इसमें व्यक्ति को उन परिस्थितियों से असंगत डर विकसित हो जाता है जिसमें उन्हें रक्त देखने को मिलता है चाहे कट फट जाने से रक्त निकल रहा हो या फिर सुई लगाने से या अन्य कारणो से। इस दुर्भीति के कारण रोगी मेडिकल जांच आदि से अपने आपको दूर रखता है। 
इस दुर्भीति की शुरुआत बाल्यावस्था में होती है तथा यह दुर्भीति पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में अधिक होती है लगभग 4% लोगों में रक्त दुर्भीति सामान्य मात्रा में पायी जाती है।


2. एगोराफोबिया

एगोराफोबिया का शाब्दिक अर्थ है भीड़ भाड़ या बाजार स्थलों से डर। 
परन्तु वास्तविकता यह है कि एगोराफोबिया में कई तरह के डर सम्मिलित होते हैं जिसका केन्द्र बिन्दु सार्वजनिक या आम स्थानों (Public Places) से ही होता है इसमें व्यक्ति को ऐसा विश्वास होता है कि उसके साथ किसी तरह के दुर्घटना होने पर कोई उसे बचाने नहीं आयेगा। 
यह महिलाओं में अधिक होता है तथा इसकी शुरुआत किशोरावस्था तथा आरंभिक वयस्कावस्था से होता है नैदानिक वैज्ञानिकों एवं मनोचिकित्सकों के पास उपचार के लिए आने वाले दुर्भीति रोगियों में से लगभग 60% रोगी एगोराफोबिया के ही होते हैं। 
एगोराफोबिया की शुरुआत बार बार आतंक दौरा होने से होता है इसमें कुछ और लक्षण जैसे तनाव, घुमड़ी, हल्का-फुल्का बाध्यता व्यवहार तथा बार बार यह देखना की दरवाजा ठीक से बंद है या नहीं, बिछावन के नीचे झांककर देखना की कहीं कोई घुस तो नहीं गया है आदि।

एगोराफोबिया के रोगियों में लगभग 93% रोगी ऐसे होते हैं जिनमें ऊंचाई एवं बंद जगहों से भी असंगत डर पाया जाता है कुछ व्यक्ति में विभीषिका विकृति में हुए आंतक या भीषिका दौरा के कारण एगोराफोबिया विकसित हो जाता है तथा कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनमें ऐसे विभीषिका दौरा का कोई इतिहास नहीं होता है फिर भी उनमें यह रोग विकसित हो जाता है यही कारण है कि DSM IV (TR) में एगोराफोबिया को वास्तविक दुर्भीति का एक प्रकार न मानकर भीषिका विकृति का एक उप-प्रकार बतलाया गया है।

3. सामाजिक दुर्भीति

इसमें व्यक्ति को अन्य व्यक्तियों के उपस्थिति का सामना करना पड़ता है व्यक्ति को ऐसे परिस्थिति में यह डर बना रहता है कि उसका लोग मूल्यांकन करेंगे। 
फलतः वह ऐसी परिस्थिति से दूर रहना चाहता है तथा वह चिंतित और काफी घबराया हुआ दिखता है इसे (social anxiety desorder) भी कहा जाता है ऐसे लोग आम लोगों के बीच बोलने से, खाना खाने से तथा सार्वजनिक पेशाब पैखाना घरों के उपयोग से काफी डरते हैं।

सामाजिक दुर्भीति की शुरुआत प्रायः किशोरावस्था में होता है तथा 25 वर्ष के बाद शायद ही किसी व्यक्ति में यह उत्पन्न होता है इसका कारण यह है कि किशोरावस्था में व्यक्ति प्रथम बार सही अर्थ में सामाजिक चेतना तथा अन्य लोगों के साथ अन्तः क्रियाओं से अवगत होता है।
यह विकृति महिला एवं पुरुष दोनों में ही समान रूप से होता है यह विकृति सामान्यतः GAD , विशिष्ट दुर्भीति, भीषिका विकृति तथा बाध्य व्यक्तित्व विकृति के साथ साथ भी होता है।

दुर्भीति के कारण

दुर्भीति के निम्नांकित चार प्रमुख सिद्धांत या कारक हैं-
  • जैविक कारक
  • मनोविश्लेषणात्मक कारक
  • व्यवहारपरक कारक
  • संज्ञानात्मक कारक

जैविक कारक

एक ही तरह के तनाव वाली परिस्थिति में होने पर भी कुछ व्यक्तियों में दुर्भीति विकसित हो जाता है जबकि कुछ अन्य व्यक्तियों में नहीं। इसका कारण यह है कि जिनमें दुर्भीति उत्पन्न होता है उनमें कुछ जैविक दुष्कार्य पाया जाता है जो तनावपूर्ण परिस्थिति के बाद उनमें दुर्भीति उत्पन्न कर देता है जैविक कारक से संबंधित दो क्षेत्र महत्वपूर्ण है जिनसे दुर्भीति उत्पन्न होता है।

1. स्वायत्त तंत्रिका तंत्र
दुर्भीति उन व्यक्तियों में अधिक उत्पन्न होता है जिनका स्वायत्त तंत्रिका तंत्र कई तरह के पर्यावरणीय उद्दीपक से बहुत जल्द ही उत्तेजित हो जाता है इसे स्वायत्त अस्थिरता कहा जाता है जो बहुत हद तक वंशानुगत रूप से निर्धारित होता है अतः दुर्भीति उत्पन्न होने में आनुवांशिकता का एक निश्चित भूमिका होता है।

2. आनुवांशिक कारक
दुर्भीति होने की सम्भावना उन व्यक्तियों में अधिक होती है जिसके माता-पिता या सगे संबंधियों में इस तरह का रोग पहले उत्पन्न हो चुका होता है।

मनोविश्लेषणात्मक कारक

फ्रायड पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने दुर्भीति के कारणों की व्याख्या मनोविश्लेषणात्मक कारक के रुप में की है फ्रायड के अनुसार दमित उपाह इच्छाओं से उत्पन्न चिंता के प्रति रोगी द्वारा अपनाया गया दुर्भीति एक सुरक्षा होता है यह चिंता या डर उत्पन्न करने वाले उपाह की इच्छाओं से विस्थापित होकर किसी वैसे वस्तु या परिस्थिति से संबंधित हो जाता है जो इन इच्छाओं से किसी न किसी ढंग से जुड़ा होता है वह परिस्थिति या वस्तु जैसे बंद स्थान, ऊंचाई, कीड़े मकोड़े आदि हो सकते हैं जो व्यक्ति के लिए दुर्भीति उत्पन्न करने वाले उद्दीपक हो जाते हैं।

तथा फ्रायड ने यह भी बतलाया कि जब अचेतन लैंगिक इच्छाएं चेतन में प्रवेश करने की कोशिश करती है तो अहं (ego) चिंता को किसी दूसरे वस्तु पर स्थानांतरित कर देता है जो फिर बाद में वास्तव में खतरनाक जैसा प्रतीत होता है।

दुर्भीति का दूसरा मनोविश्लेषणात्मक व्याख्या (Arieti, 1979) द्वारा प्रदान किया गया है इनके अनुसार बाल्यावस्था में बच्चे निर्दोषता की अवधि से गुजरते हैं जिसके दौरान उन्हें यह विश्वास होता है कि वयस्क लोग उन्हें किसी भी तरह के खतरे से बचा लेंगें। परंतु बड़े होने पर जब उनका यह विश्वास टूटता है तो वे वयस्कों विशेषकर माता पिता को अधिक विश्वसनीय नही मानने लगते हैं परन्तु माता-पिता को विश्वसनीय नहीं मानना सामाजिक दृष्टिकोण से अनुचित होता है इसलिए वे फिर से इन वयस्को में विश्वास तथा भरोसा करना प्रारंभ कर देते हैं और इस प्रक्रिया में वे अचेतन रूप से अन्य लोगों के डर को कुछ वस्तु या परिस्थिति से प्रतिस्थापित कर देते है इससे आखिरकार व्यक्ति में दुर्भीति उत्पन्न हो जाती है।


व्यवहारात्मक कारक

इस सिध्दांत या कारक के अनुसार व्यक्ति में दुर्भीति उत्पन्न होने का मुख्य कारण दोषपूर्ण सीखना होता है इस दोषपूर्ण सीखना की व्याख्या तीन तरह के कारकों से की गयी है—

1. परिहार अनुबंधन
इसमें दुर्भीति उत्पन्न होने के लिए यह आवश्यक है कि उत्पन्न
डर सामान्यीकृत हो अर्थात व्यक्ति सिर्फ अनुबंधित उद्दीपक से नहीं डरे बल्कि अन्य समान उद्दीपक से भी डरे। जैसे वह सिर्फ विशेष ऊंचे मकान पर जाने से नही डरे बल्कि सभी ऊंची स्थानों पर जाने से डरे।

परिहार अनुबंधन के अनुसार किसी विशिष्ट वस्तु से संबंधित दुर्भीति प्रायः उस वस्तु से उत्पन्न दर्द भरे अनुभूतियों से ही उत्पन्न होता है। 
जैसे स्कूटर से दुर्घटनाग्रस्त हो जाने पर कुछ लोगों में सिर्फ स्कूटर ही नहीं बल्कि दो पहिया, तीन पहिया तथा चार पहिया वाहनों को चलाने के प्रति उनमें असंगत डर विकसित हो जाता है।

(Ost, 1987) ने अपने अध्ययन में यह पाया कि कुछ ऐसे भी व्यक्ति उनके उपचारगृह में आए जिनमें सर्प, जीवाणु, हवाई जहाज तथा ऊंचाई से दुर्भीति उत्पन्न तो अवश्य हुआ था परन्तु उनके जीवन में इन वस्तुओं से कभी भी कोई अप्रिय अनुभव नहीं हुआ था। इसी तरह से कुछ अध्ययनों में यह देखा गया कि मोटर या कार दुर्घटना का अनुभूति नही होने पर भी उनमें इन वाहनों के प्रति दुर्भीति उत्पन्न हो गया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि परिहार अनुबंधन माॅडल दुर्भीति की पूर्ण व्याख्या करने में अकेले सक्षम नहीं है।


2. माॅडलिंग

माॅडलिंग के अनुसार दुर्भीति व्यक्ति में दूसरों के व्यवहार का प्रेक्षण करके या उसके बारे में सुनकर भी विकसित होता है जैसे एक प्रयोग में किशोर बंदरों को कुछ वयस्क बंदरों के साथ रखा गया जो सांप से काफी डरते थे विभिन्न प्रेक्षणात्मक सीखना के सत्रो के दौरान किशोर बंदरों ने उन वयस्क बंदरो को सांप से डरने के व्यवहारों का तथा अन्य उद्दीपक से नहीं डरने के व्यवहारों का प्रेक्षण किया। छह ऐसे सत्रों के बाद पाया गया कि किशोर बंदरों में भी सांप के प्रति असंगत डर विकसित हो गया था।


3. धनात्मक पुनर्बलन
दुर्भीति का विकास व्यक्ति में धनात्मक पुनर्बलन के आधार पर भी होता है जैसे कोई बच्चा स्कूल जाने के डर से अपने माता-पिता के सामने कुछ ऐसा बहाना बनाता है कि उसे स्कूल नहीं जाना पड़े। यदि माता पिता उसके इस बहाने को सुनकर उसे स्वीकार कर लेते हैं और जिसके परिणामस्वरूप बच्चे को स्कूल नहीं जाना पड़ता है तो यहां माता पिता द्वारा बच्चों को स्कूल नहीं जाने के लिए सीधा धनात्मक पुनर्बलन मिल रहा है इसका परिणाम यह होगा कि बच्चा भविष्य में डरकर स्कूल नहीं जाने की अनुक्रिया को सीख लेगा।


संज्ञानात्मक कारक

दुर्भीति विकृति से ग्रस्त व्यक्ति जानबूझकर परिस्थिति को या उससे मिलने वाले सूचनाओं को इस ढंग से संसाधित कर लेता है कि उससे उनका दुर्भीति और भी मजबूत हो जाता है इस तरह से दुर्भीति के उत्पन्न होने तथा उसे संपोषित होने में एक तरह का संज्ञानात्मक पूर्वाग्रह होता है।


दुर्भीति के उपचार 

दुर्भीति के उपचार की कई विधियां हैं जिन्हें मोटे तौर पर निम्नांकित चार प्रमुख भागों में बांटा गया है।
  1. जैविक उपचार 
  2. मनोविश्लेषणात्मक उपचार 
  3. व्यवहारात्मक उपचार 
  4. संज्ञानात्मक उपचार 

जैविक उपचार 

दुर्भीति के रोगियों की चिंता कम करने के लिए चिंता विरोधी औषध जैसे (Barbiturate) का प्रयोग किया जाता है परन्तु इसका पार्श्विक प्रभाव अधिक होने के कारण इसका उपयोग कम होने लगा है इसकी जगह तुलनात्मक रूप से अन्य दो औषध जैसे (Propanediols) तथा (Benzodiazepines) का उपयोग अधिक किया जाता है इन औषधों की सबसे बड़ी कमी यह है कि औषध बन्द करते ही दुर्भीति के लक्षण पुनः लौट आते हैं।

मनोविश्लेषणात्मक उपचार 

इसमें चिकित्सक रोगी के ऐसे दमित मानसिक संघर्ष की पहचान करके उपचार करने की कोशिश करता है जो रोगी में असंगत डर उत्पन्न करता है तथा डर के वस्तुओं या परिस्थितियों से व्यक्ति को दूर ले जाता है। इस तरह के संघर्ष की पहचान करने में चिकित्सक स्वतंत्र साहचर्य विधि, स्वप्न विश्लेषण आदि का सहारा लेता है। 
परम्परागत मनोविश्लेषक मूलतः लैंगिक मानसिक संघर्ष का पता लगाकर रोगी का उपचार करते हैं।
परंतु (Arieti) के अन्तरवैयक्तिक सिद्धान्त से सम्बंधित मनोविश्लेषक ऐसे रोगी को अपने सामान्यीकृत डर को समझने में मदद कर उसका उपचार करते हैं।

व्यवहारपरक उपचार

 दुभीति के उपचार में कई तरह के व्यवहारपरक विधियों जैसे क्रमबद्ध असंवेदीकरण, मॉडलिंग तथा फ्लडिंग आदि प्रमुख हैं।

क्रमबद्ध असंवेदीकरण
क्रमबद्ध असंवेदीकरण की प्रविधि द्वारा दुर्भीति का उपचार काफी किया गया है। इसका विकास (Joseph Wolpe) द्वारा 1950 के दशक में किया गया था।

इस विधि में उपचार तीन स्तरीय अवस्था में होता है- 
  1. पहली अवस्था में चिकित्सक रोगी को मांशपेशियों के शिथिलीकरण का प्रशिक्षण देता है। 
  2. दूसरी अवस्था में चिकित्सक की मदद से रोगी उन सभी वस्तुओं या परिस्थितियों की एक पदानुक्रमिक सूची तैयार करता है। जिनसे वह डरता है  
  3. तीसरी अवस्था में प्रतिअनुबंधन के सहारे रोगी के दुर्भीति को धीरे-धीरे कम किया जाता है। 
इस तीसरी अवस्था में रोगी गहरी शिथिलीकरण की अवस्था में रहते हुए सूची से हर उत्पन्न करने वाले उद्दीपकों के बारे में एक-एक करके सोचते जाता है। 
वह पहले सूची के उस उद्दीपक के बारे में सोचता है जिससे सबसे कम डर उत्पन्न होता है फिर उसके  बाद अधिक डर उत्पन्न करने वाले उद्दीपक के बारे में एक के बाद एक करके सोचता है। इससे उसका डर स्वभावतः कम हो जाता है क्योंकि डर तथा शिथिलीकरण आपस में असंगत अनुक्रिया है जो एक साथ नहीं हो सकता है। 

मॉडलिंग
मॉडलिंग की प्रविधि में दुर्भीति के रोगी किसी ऐसे मॉडल या व्यक्ति के व्यवहार को देखता है जो उसके रोग से सम्बन्धित व्यवहार को बिना किसी डर के करता है। 
जैसे, सर्प दुर्भीति के रोगी को एक ऐसा मॉडल दिखलाकर उसका उपचार किया जाता है जिसमें मॉडल या व्यक्ति सर्प को लेकर अपने शरीर पर छोड़ता है तथा वह फिर सर्प को हाथ से पकड़‌कर उसे उलट-पुलट करते हुए अपने कधे एवं गले में लिपटाता है। 
उसे देखकर रोगी यह सोचता है कि सचमुच में सर्प से उसका डर व्यर्थ है। फिर उसके बाद चिकित्सक उस रोगी को धीरे-धीरे साँप के पास आने, उसे छूने एवं पकड़ने के लिए प्रोत्साहित करता है और इसी प्रक्रिया को बार-बार करके उसकी दुर्भीति को कम या समाप्त किया जाता है।

फ्लडिंग
फ्लडिंग में दुर्भीति के रोगी को उस वस्तु या परिस्थिति में लंबे समय तक रखा जाता है जिससे वह डरता है। 
जैसे बंद स्थान से दुर्भीति (claustrophobia) के रोगी को बंद कमरे में कुछ घंटों तक रखा जाता है तथा ऊँचाई से डरने (Acrophobia) वाले व्यक्ति को ऊँचे मकान पर कुछ घंटों के लिए ले जाया जाता है। 
ऐसा करने से रोगी में यह सूझ उत्पन्न होता है कि उसका डर व्यर्थ है क्योंकि किसी भी तरह का अनर्थ तो नहीं होता है। ऐसी सूझ से उसकी दुर्भीति स्वतः कम होने लगती है।

संज्ञानात्मक उपचार 

दुर्भीति के उपचार में संज्ञानात्मक प्रविधियाँ अधिक सफलीकृत नहीं हो पायी है।  
(Ellis, 1962) का सुझाव है कि रोगी के असंगत विश्वासों द्वारा दुर्भीति संपोषित होता है। अतः जब भी रोगी उस वस्तु या परिस्थिति जिससे वह डरता है, का सामना करता है। तो उसे अपने असंगत विश्वास के खोखलापन को समझाने की कोशिश करनी चाहिए। इससे रोगी में असंगत विश्वास कमजोर होकर उसके जगह पर संगत विश्वास कायम हो जाएगा और फिर धीरे-धीरे उसकी दुर्भीति कम हो जाएगी या समाप्त हो जाएगी। 

भीषिका विकृति | भीषिका विकृति के कारण एवं उपचार | Panic Desorder | Etiology & Treatment


भीषिका विकृति में रोगी को अचानक एक अव्याख्येय भीषिका या आतंक का दौरा पड़ता है जब व्यक्ति को इस तरह का दौरा हफ्ता में कम से कम एक या दो बार अवश्य ही पड़ता है तो DSM IV (TR) के अनुसार उसमें भीषिका विकृति उत्पन्न हो गया है।

भीषिका दौरा को DSM IV (TR) में कुछ प्रमुख दैहिक संवेदनाओं के रूप में परिभाषित किया गया है। इन दैहिक संवेदनाओं में यदि कम से कम चार दैहिक संवेदन भी कोई व्यक्ति अनुभव करता है तो उसे भीषिका दौरा कहा जायेगा। ये संवेदन इस प्रकार हैं -

भीषिका विकृति | भीषिका विकृति के कारण एवं उपचार, Panic Desorder, Etiology & Treatment
  • ह्रदय गति का तीव्र या कम होना
  • पसीना आना
  • मांसपेशियों में कंपन्न उत्पन्न होना
  • सांस की गति रूकने या मंद होने का अनुभव होना
  • छाती में दर्द या तकलीफ होना
  • दम घुटने का अनुभव करना
  • पेट में दर्द होना तथा मिचली का अनुभव
  • बेहोशी होना या चक्कर आने का अनुभव करना
  • अपने आप से अलग हो जाने का अनुभव करना
  • अपने आप पर नियंत्रण खोने का डर होना या सनकी होना
  • मरने का डर होना
  • सुन्न या झुनझुनी संवेदन का होना
  • कंपकंपी या अत्यधिक गर्मी का अनुभव होना

भीषिका दौरा सांकेतिक तथा असांकेतिक दोनों ही तरह का होता है। 
सांकेतिक भीषिका दौरा कोई विशेष परिस्थिति या उद्दीपक से संबंधित होता है और जब व्यक्ति का उस उद्दीपक या परिस्थिति से सामना होता है तो उसमें दौरा पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में तब मनोश्चिकित्सक उसमें दुर्भिति रोग (Phobia) उत्पन्न होने का अनुमान लगाते हैं।

भीषिका दौरा अप्रत्याशित ढंग से भी होता है और किसी वस्तु या परिस्थिति से संबंधित नहीं होता है तो यह समझा जाता है कि व्यक्ति में भीषिका विकृति (Panic Desorder) विकसित हो गयी है।

DSM IV (TR) में भीषिका विकृति को एगोराफोबिया के साथ या उसके बिना भी होने की बात कही गई है।

जब भीषिका विकृति के रोगी कहीं आम स्थानों (Public Places) जैसे बस अड्डे, रेलवे प्लेटफार्म, स्कूल, अस्पताल जाने में इसलिए घबराता है कि वहां उसे दौरा पड़ने पर कोई देखने वाला नहीं होगा। तो ऐसी परिस्थिति में यह समझा जाता है कि उसमें भीषिका विकृति एगोराफोबिया के साथ उत्पन्न हुआ है।
परन्तु जब रोगी आम स्थानों पर जाने से नही घबराता है तो ऐसा समझा जाता है कि उसमें भीषिका विकृति बिना एगोराफोबिया के ही उत्पन्न हुआ है।

मनोचिकित्सकों की राय है कि अधिकतर केसेज में भीषिका विकृति एगोराफोबिया के लक्षण के साथ उत्पन्न होता है।

भीषिका विकृति के एक केस का उदाहरण

(Spitzer, 1983) एवं उनके सहयोगियों  द्वारा प्रस्तुत 

" एक महिला मिसेज वाट्सन जिनकी आयु 45 वर्ष की थी और उनके दो बच्चे भी थे। उन्हें अपने चाचा से बचपन से ही काफी लगाव था क्योंकि उनके पालन-पोषण में चाचा की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। कुछ महीना पहले उनके चाचा की मृत्यु हो गयी थी जिससे उन्हें काफी मानसिक आघात पहुँचा था। कुछ दिन पहले जब वह अपने काम से घर लौट रही थी तो रास्ते में ही उन्हें भीषिका दौरा पड़ा। 

जाड़े के मौसम में वह पसीने-पसीने हो गयी। उन्हें अनुभव होने लगा कि उनका हृदय गति रुकने वाला है तथा उनकी साँस की गति काफी अनियमित ढंग से चलने लगी। उन्हें अवास्तविकता तथा अपने आप से अलग होने का अनुभव होने लगा। अगल-बगल के लोगों से सहायता माँगकर वह किसी तरह नजदीक के अस्पताल में पहुँची। जहाँ उनका मेडिकल जाँच किया गया और किसी तरह की कोई असामान्यता नहीं पायी गयी। सिर्फ इतना ही पाया गया कि उनका हृदय गति कुछ अनियमित था जो जाँच के ही दौरान फिर सामान्य हो गया।

इसी तरह का दूसरा भीषका दौरा फिर उन्हें घर पर पड़ा जब वह खाना बना रही थी। अगले कुछ सप्ताहों में उन्हें घर में ऐसा ही और दौरा पड़ा। जैसे-जैसे उनमें भीषका दौरा पड़ने की संख्या बढ़ते गयी उन्हें घर से बाहर जाने में डर उत्पन्न हो गया। हमेशा वह इस बात से अब डरने लगी कि अकेले वह बाहर नहीं जाएगी क्योंकि सम्भव है कि उन्हें इस ढंग का भीषका दौरा पड़ जाए तो कौन उन्हें बचाएगा। फलतः उन्होंने अपने सामाजिक कार्यों एवं मनोरंजन सम्बद्ध बाहर के कार्यों में काफी कटौती कर दिया। 
बहुत दिनों तक उनका उपचार किये जाने पर फिर वह महिला अपने सामान्य जीवन की ओर लौट गयी और फिर कभी उसे भीषका दौरा नहीं पड़ा। उसके इस उपचार में अन्य प्रविधियों के अतिरिक्त विषाद-विरोधी औषध जैसे इमीप्रेमाईन की महत्वपूर्ण भूमिका बतलायी गयी।" 

उक्त केस उदाहरण में महिला में भीषका विकृति के साथ-साथ एगोराफोबिया के भी लक्षण स्पष्ट हैं।

भीषिका विकृति के कारण (etiology of Panic Desorder)

भीषिका विकृति के कई कारण बतलाये गये हैं जिन्हें मोटे तौर पर निम्नांकित दो प्रमुख भागों में बांटा गया है

1. जैविक कारक
(Torgersen, 1983) के अनुसार भीषिका विकृति एकांडी जुड़वाँ बच्चों (identical twin children) की अपेक्षा भ्रात्रीय जुड़वाँ बच्चों (fraternal twin children) में काफी अधिक होती है।

इन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि एकांडी जुड़वाँ युग्म में से एक बच्चे को भीषिका विकृति होती है तो दूसरे बच्चे में यह विकृति होने की संभावना 31% बढ़ जाती है।

परन्तु भ्रात्रीय जुड़वाँ युग्म में से यदि किसी एक को भीषिका विकृति होती है तो युग्म के दूसरे बच्चे में इस विकृति के होने की सम्भावना न के बराबर होती है।
इससे स्पष्ट पता चलता है कि भीषिका विकृति का एक आनुवांशिक आधार होता है।

एकांडी जुड़वाँ (Identical twins)
जब एक निषेचित अंडा दो अलग-अलग भ्रूणों में विभाजित हो जाता है तो इसके परिणामस्वरूप एक ही आनुवंशिक संरचना वाले जुड़वाँ बच्चे पैदा होते हैं। आमतौर पर इनका लिंग समान होता है। एकांडी जुड़वाँ अपने डीएनए का 100% साझा करते हैं।

Identical twin & fraternal twins

भ्रात्रीय जुड़वाँ (Fraternal twins)
जब दो अलग-अलग अंडों को दो अलग-अलग शुक्राणु निषेचित करते है तो इससे भिन्न आनुवंशिक संरचना वाले जुड़वाँ बच्चे पैदा होते हैं। जो किसी भी अन्य भाई-बहन के समान होते हैं। भ्रात्रीय जुड़वाँ सामान्य भाई-बहनों की तरह केवल 50% डीएनए साझा करते हैं।


(Charney & Heninger, 1986) के अनुसार जब व्यक्ति के मस्तिष्क का वह सर्किट जो आपातकालीन प्रतिक्रिया को धीमा करता है या बन्द करता है। उसकी क्षमता कमजोर हो जाती है तो इससे व्यक्ति में भीषिका विकृति उत्पन्न होने की सम्भावना बढ़ जाती है।

(Ley, 1987) के अनुसार अतिश्वसन के कारण व्यक्ति का स्वायत्त तंत्रिका तंत्र उत्तेजित हो जाता है जिससे व्यक्ति में भीषिका विकृति के सभी दैहिक लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं।

कुछ अध्ययन से यह भी पता चला है कि जब श्वसन वायु में कार्बन-डाई-ऑक्साइड की मात्रा सामान्य से अधिक होती है तो इससे भी भीषिका दौरा पड़ता है क्योंकि कार्बन-डाई-ऑक्साइड अधिक होने के कारण अतिश्वसन की अवस्था उत्पन्न होती है।


2. मनोवैज्ञानिक कारक
(Clark, 1989) के अनुसार भीषिका विकृति उत्पन्न होने का एक कारण यह भी है कि व्यक्ति अपने भीतर उत्पन्न शारीरिक संवेदनाओं का भ्रांतिपूर्ण व्याख्या करता है।

भीषिका विकृति के रोगी सामान्य चिंता अनुक्रियाओं जैसे तीव्र ह्रदय गति, दम फूलने की स्थिति तथा चक्कर आने की स्थिति को यह मान लेते हैं कि अब भीषिका दौरा पड़ने वाला है जबकि वास्तविकता में यह अन्य कारणों से उसमें होता है। ऐसे भ्रांतिपूर्ण व्याख्या से व्यक्ति में परेशानी और बढ़ जाती है और अन्त में उसमें भीषिका विकृति उत्पन्न हो जाता है।


भीषिका विकृति का उपचार

इसके उपचार के लिए कुछ औषधी का सफलतापूर्वक प्रयोग किया गया है जिसमें (tricyclic antidepressant drugs) और (anti anxiety drugs) जैसे (Alprozalam) से भीषिका विकृति कम होते पाया गया है और कुछ रोगियों में पूर्णतः समाप्त भी हो गया है।

इसके अतिरिक्त (Barlow, Craske & Klosko, 1990) का विचार था कि शारीरिक संवेदनाओं की भ्रांत व्याख्या से ही व्यक्ति में भीषिका विकृति उत्पन्न होती है यदि इस भ्रांतिपूर्ण व्याख्या को ही बदल दिया जाए तो विकृति अपने आप दूर हो जाएगी।

अतः इन लोगों ने इसी तर्क के साथ रोगियों का उपचार करना शुरू कर दिया। इन्होंने उनको बताया की श्वसन गति में कमी, पसीना आना और ह्रदय गति का तीव्र होना आदि सामान्य चिंता के कारण आते हैं और यदि इन लक्षणों को गलती से ह्रदय आघात समझ लिया जाता है तो लक्षण और गंभीर हो जाते हैं और भीषिका दौरा पड़ने की सम्भावना बढ़ जाती है। अतः रोगियों को कहा गया कि इन लक्षणों को वह सामान्य चिंता ही समझें और इसके बाद उन्हें उन लक्षणों से निपटने के लिए प्रशिक्षण दिया गया।

उन्हें इस प्रशिक्षण के दौरान दिखलाया जाता था कि जिन दैहिक लक्षणों को वह ह्रदय आघात के लक्षण मान रहे थे वे वास्तव में सामान्य चिंता के लक्षण हैं। इस तरह रोगी अपने शारीरिक संवेदनों की सही व्याख्या करना सीख लेता है।


मनोवृत्ति | मनोवृत्ति का विकास एवं निर्माण | मनोवृत्ति की मापन विधियाॅं

साधारण अर्थ में मनोवृत्ति व्यक्ति के मन की एक विशिष्ट दशा होती है जिसके द्वारा वह समाज की विभिन्न परिस्थितियों, वस्तुओं, व्यक्तियों आदि के प्रति अपने विचार या मनोभाव को प्रकट करता है ।

समाज मनोवैज्ञानिकों एवं समाजशास्त्रियों ने मनोवृत्ति को परिभाषित करने के लिए मूलतः निम्नांकित तीन दृष्टिकोण को अपनाया है -

1. एक विमीय दृष्टिकोण 
इस दृष्टिकोण के अनुसार मनोवृत्ति को एक विमा अर्थात् मूल्यांकन पक्ष को ध्यान में रखकर उसे परिभाषित किया है। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने इस मूल्यांकन विमा को भावात्मक संघटक कहा है ।

( Fishbein & Ajzen , 1975 ) के अनुसार "किसी वस्तु के प्रति संगत रूप से अनुकूल या प्रतिकूल ढंग से अनुक्रिया की अर्जित पूर्वप्रवृत्ति को मनोवृत्ति कहते है।"


2. द्विविमीय दृष्टिकोण 
इस दृष्टिकोण के अनुसार मनोवृत्ति की व्याख्या करने के लिए दो विमाओं का सहारा लिया गया है भावात्मक संघटक तथा संज्ञानात्मक संघटक।
संज्ञानात्मक संघटक से तात्पर्य किसी घटना का वस्तु के संबंध में व्यक्ति में जो विश्वास होता है। जैसे दलितों के प्रति ऊंची जाति के लोगों में एक खास विश्वास होता है।
भावात्मक संघटक से तात्पर्य किसी वस्तु घटना या व्यक्ति के प्रति सुखद या दुखद भाव की तीव्रता से होता है। सुखद भाव के होने पर हम उस वस्तु व्यक्ति या घटना को पसंद करते हैं तथा दुखद भाव के होने पर हम उन्हें नापसन्द करते हैं।

द्विविमीय दृष्टिकोण के अनुसार मनोवृत्ति संज्ञानात्मक तथा भावात्मक संघटक का एक संगठन है।


3. त्रिविमीय दृष्टिकोण 
आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने मनोवृत्ति की व्याख्या करने के लिए त्रिविमीय दृष्टिकोण अपनाया है। इस दृष्टिकोण के अनुसार मनोवृत्ति के पहले से चले आ रहे दो संघटकों को जोड़कर उसकी व्याख्या की जाती है।

अधिकतर आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का मत है कि मनोवृत्ति संज्ञानात्मक ,भावात्मक तथा व्यवहारात्मक संघटक का एक संगठित तंत्र है इसे मनोवृत्ति का ABC माडल कहा जाता है।
A- Affective component (भावात्मक संघटक)
B- Behavioural component (व्यवहारात्मक संघटक)
C- Cognitive component (संज्ञानात्मक संघटक)

(Kretch ,crutchfield & ballachy 1982) के अनुसार "किसी एक वस्तु के संबंध में तीन संघटकों का स्थायी तंत्र मनोवृत्ति कहलाता है संज्ञानात्मक संघटक यानी वस्तु के बारे में विश्वास भावात्मक संघटक यानी वस्तु से संबंधित भाव तथा व्यवहारात्मक संघटक यानी उस वस्तु के प्रति क्रिया करने की तत्परता।"

मनोवृत्ति का विकास एवं निर्माण

मनोवृत्ति एक अर्जित प्रवृत्ति है भिन्न-भिन्न प्रयोगों के आधार पर समाज मनोवैज्ञानिको ने निष्कर्ष के रूप में कुछ ऐसे कारकों की ओर संकेत किया है जिससे मनोवृत्ति का विकास एवं निर्माण प्रभावित होता है कुछ ऐसे महत्वपूर्ण कारक निम्नांकित हैं-

1. आवश्यकता पूर्ति
प्रायः देखा गया है कि जिस व्यक्ति, वस्तु तथा घटना से हमारे लक्ष्य की प्राप्ति होती है एवं आवश्यकता की पूर्ति होती है उसके प्रति हमारी मनोवृत्ति अनुकूल होती है। तथा जिस व्यक्ति, वस्तु एवं घटना से हमारे लक्ष्य की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न होती है एवं आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती है उनके प्रति हमारी मनोवृत्ति प्रतिकूल हो जाती है।

2. दी गई सूचनाएं
मनोवृत्ति के निर्माण में व्यक्ति को दी गई सूचनाओं की भी भूमिका महत्वपूर्ण होती है। आधुनिक समाज में भिन्न-भिन्न माध्यमों से व्यक्ति को सूचनाएं दी जाती है इन माध्यमों में रेडियो, टेलीविजन, अखबार आदि प्रमुख है इन माध्यमों से दी गई सूचनाओं के अनुसार व्यक्ति अपनी मनोवृत्ति विकसित करता है। इन माध्यमों के अलावा माता-पिता, भाई-बहन, साथियों एवं पड़ोसियों से भी व्यक्ति को सूचनाएं मिलती है।


3. सामाजिक सीखना
सामाजिक सीखना का प्रभाव भी मनोवृत्ति के विकास में काफी पड़ता है। समाज मनोविज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया कि मनोवृत्ति के विकास में सीखने के तीन तरह की प्रक्रियाओं का महत्वपूर्ण स्थान है-
  1. क्लासिक अनुबंधन 
  2. साधनात्मक अनुबंधन 
  3. प्रेक्षणात्मक सीखना 

4. समूह संबंधन
समूह संबंधन से तात्पर्य व्यक्ति का किसी खास समूह के साथ संबंध कायम करने से होता है यह निश्चित है कि जब व्यक्ति अपना संबंध किसी खास समूह से जोडता है तो वह उस समूह के मूल्यों, मानदंडो, विश्वासों और तरीकों को भी स्वीकार करता है। ऐसे परिस्थिति में व्यक्ति इन मूल्यों एवं मानदंडो के स्वरूप के अनुसार एक नयी मनोवृत्ति विकसित करता है।


5. सांस्कृतिक कारक
प्रत्येक व्यक्ति का पालन-पोषण विभिन्न संस्कृति में होता है। तथा प्रत्येक संस्कृति का अपना मानदंड, मूल्य, परम्पराए, धर्म आदि होते हैं। व्यक्ति अपनी मनोवृत्ति इन्हीं सांस्कृतिक प्रारूप के अनुसार विकसित करता है तथा एक समाज की संस्कृति दूसरे समाज की संस्कृति से भिन्न होती है। 
उदाहरण - 
मुस्लिम संस्कृति और हिन्दू संस्कृति की तुलना करने पर हमें मिलता है कि मुस्लिम संस्कृति में पले व्यक्तियों कि मनोवृत्ति मौसेरे व चचेरे भाई बहनों में शादी के प्रति अनुकूल होती है। परन्तु हिन्दू संस्कृति में पले व्यक्तियों की मनोवृत्ति इस तरह के शादी के प्रति प्रतिकूल होती है। 
इसी तरह मृत्यु के पश्चात व्यक्ति का अन्तिम संस्कार किस तरह से किया जाये इसमें भी हिन्दू एवं मुस्लिम संस्कृति में व्यक्तियों की मनोवृत्ति अलग-अलग होती है।


6. व्यक्तित्व कारक
मनोवृत्ति के निर्माण एवं विकास में व्यक्तित्व शील गुणों का भी काफी अधिक प्रभाव पड़ता है व्यक्ति उन मनोवृत्तियों को जल्दी सीख लेता है जो उनके व्यक्तित्व के शील गुणों के अनुकूल होती है। समाज मनोवैज्ञानिको ने भिन्न-भिन्न तरह की मनोवृत्तियां जैसे धार्मिक मनोवृत्ति, राजनैतिक मनोवृत्ति तथा संजात केन्द्र वाद में व्यक्तित्व कारकों के महत्व का अध्ययन किया है।
संजात केन्द्र वाद एक ऐसी मनोवृत्ति है जिसमें व्यक्ति अपने समूह या वर्ग को अन्य सभी समूहों या वर्गों की तुलना में श्रेष्ठ समझता है।


7. रूढ़िकृतियां
प्रत्येक समाज में कुछ रूढ़िकृतियां होती है जिनसे भी व्यक्ति की मनोवृत्तियों का विकास प्रभावित होता है। रूढ़िकृतियों
 से तात्पर्य किसी वर्ग या समुदाय के लोगों के बारे में स्थापित सामान्य प्रत्याशाओं तथा सामान्यीकरण से होता है।
उदाहरण - 
जैसे हमारे समाज में महिलाओं के प्रति एक रूढिकृति है कि वे पुरूषों की अपेक्षा अधिक धार्मिक एवं परामर्शग्राही होती है।
उसी तरह से हिन्दू समाज में एक महत्वपूर्ण रूढिकृति है कि गाय उनकी माता है परंतु मुस्लिम समुदाय में उस प्रकार की रूढिकृति नही पायी जाती है। फलस्वरूप गाय के प्रति हिन्दूओं की मनोवृत्ति मुस्लिमों की मनोवृत्ति की अपेक्षा अधिक अनुकूल होती है।


मनोवृत्ति का मापन 

मनोवृत्ति मापन से तात्पर्य व्यक्ति में मनोवृत्ति की दिशा एवं उसकी मात्रा का पता लगाने से होता है।
मनोवृत्ति की दिशा से तात्पर्य है मनोवृत्ति धनात्मक है या ऋणात्मक। 
तथा उसकी मात्रा से तात्पर्य इस बात से होता है कि मनोवृत्ति धनात्मक है तो कितनी मात्रा में या ऋणात्मक है तो कितनी मात्रा में।

मनोवृत्ति मापन में समाज मनोवैज्ञानिको द्वारा दो महत्वपूर्ण पूर्वकल्पना की जाती है 
  1. व्यक्ति का व्यवहार मनोवृत्ति की वस्तु या घटना के प्रति एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में संगत होगा।
  2. व्यक्ति के व्यवहारों एवं कथनो द्वारा ही उसके मनोवृत्ति की मापन के बारे में अंदाज लगाया जा सकता है।

समाज मनोवैज्ञानिको एवं समाजशास्त्रियों ने मनोवृत्ति मापन के लिए जितने विधियों का प्रतिपादन किया है उसे (compbell, 1950) ने निम्नांकित चार भागों में विभाजित किया है -
  • अप्रच्छन्न संरचित विधि
  • अप्रच्छन्न असंरचित विधि
  • प्रच्छन्न असंरचित विधि 
  • प्रच्छन्न संरचित विधि 

अप्रच्छन्न संरचित विधि

इस विधि में भिन्न प्रकार के आत्म रिपोर्ट विधि आते हैं। आत्म रिपोर्ट विधि में मनोवृत्ति मापने के लिए मनोवृत्ति वस्तु से संबंधित कुछ प्रश्न दिये रहते हैं जिसे व्यक्ति पढ़कर स्वयं ही उसका उत्तर देता है इस तरह की प्रश्नावली को मनोवृत्ति मापनी या मनोवृत्ति प्रश्नावली कहा जाता है।
मनोवृत्ति मापनी में दिये गये प्रश्नों के उत्तरों के आधार पर व्यक्ति की मनोवृत्ति मापी जाती है।
मनोवृत्ति मापने के लिए मनोवृत्ति प्रश्नावली या मनोवृत्ति मापनीयों को निम्नांकित छः भागों में बांटा गया है 
  1. थर्स्टन मापनी विधि 
  2. लिकर्ट मापनी विधि 
  3. बोगार्डस सामाजिक दूरी मापन विधि 
  4. गेटमैन संचयी मापनी विधि 
  5. मापनी विभेद प्रविधि 
  6. शब्दार्थ विभेदक मापनी विधि 

थर्स्टन मापनी विधि 

मनोवृत्ति मापने के लिए L. L. Thurstone ने सबसे पहले मनोवृत्ति मापनी का प्रयोग किया।
थर्स्टन विधि द्वारा तैयार की गई मनोवृत्ति मापनी में इस तरह से कुल 25 से 30 कथन होते हैं। जिस व्यक्ति की मनोवृत्ति की माप करनी है उसे इन सभी कथनो को दे दिया जाता है। जिन कथनो से वे सहमत होते हैं उन पर सही का चिन्ह तथा जिन कथनों से वे असहमत होते हैं उस पर क्रास का चिन्ह लगाने के लिए उनसे कहा जाता है फिर सभी कथनो में से सहमत कथनो का एक औसत ज्ञात किया जाता है जिसके आधार पर उस व्यक्ति की मनोवृत्ति की माप होती है। यह औसत मान जितना ही अधिक होता है (अधिकतर 11 हो सकता है।) व्यक्ति की मनोवृत्ति उतनी अनुकूल मानी जाती है तथा जितना ही औसत मान कम होता है (न्यूनतम 1 हो सकता है।) व्यक्ति की मनोवृत्ति प्रतिकूल मानी जाती है।


लिकर्ट मापनी विधि 

इस विधि का प्रतिपादन रेन्सिस लिकर्ट ने 1932 में किया लिकर्ट मापनी द्वारा मनोवृत्ति मापने की विधि बहुत कुछ थर्स्टन विधि के ही कुछ समान है। जिस व्यक्ति की मनोवृत्ति मापनी होती है उसे लिकर्ट मापनी दे दी जाती है और व्यक्ति प्रत्येक कथन को पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया पांच श्रेणी अर्थात पूर्णतः सहमत, सहमत, अनिश्चित, असहमत, पूर्णतः असहमत में से किसी एक के रूप में करता है। बाद में मनोवृत्ति के प्रति अनुकूल मनोवृत्ति दिखलाने वाले कथनो के लिए क्रमशः 5,4,3,2,1 अंक दिया जाता है तथा प्रतिकूल मनोवृत्ति दिखलाने वाले कथनो के लिए क्रमशः 1,2,3,4 तथा 5 अंक दिया जाता है। प्रत्येक कथन पर प्रयोज्य द्वारा प्राप्त अंकों को एक साथ जोड़कर  कुल प्राप्तांक ज्ञात किया जाता है। कुल प्राप्तांक अधिक होने से वस्तु के प्रति व्यक्ति की मनोवृत्ति अनुकूल तथा कम होने से व्यक्ति की मनोवृत्ति प्रतिकूल समझी जाती है।



बोगार्डस सामाजिक दूरी मापन विधि 

(Bogardus, 1925) ने भिन्न-भिन्न राष्ट्रीयता के लोगों के प्रति मनोवृत्ति मापने के लिए सामाजिक दूरी मापनी का निर्माण किया। इस मापनी का मूल आधार यह है कि भिन्न-भिन्न राष्ट्रीयता के लोग एक-दूसरे से घनिष्ठ संबंध रखते हैं फलस्वरूप उसमें सामाजिक दूरी होती है और उनकी मनोवृत्ति एक-दूसरे के प्रति ऋणात्मक होती है।

जब हम लोग दूसरे जाति, धर्म, राष्ट्रीयता के लोगों के बारे में सोचते हैं तो इसमें से कुछ लोग हमारी सामाजिक घनिष्ठता में पूर्व अनुभव के आधार पर कम दूरी पर होते हैं परंतु कुछ लोग अधिक दूरी पर होते हैं इसे सामाजिक दूरी की संज्ञा देते हैं।

बोगार्डस ने सामाजिक दूरी मापनी बनाते समय सात ऐसे कथनो को सम्मिलित किया है जिससे किसी विशेष राष्ट्रीयता के लोगों के प्रति स्वीकृति की मात्रा का बोध होता है इसी स्वीकृति की मात्रा के आधार पर मनोवृत्ति की दिशा और मात्रा का बोध होने की पूर्व कल्पना की जाती है।

बोगार्डस द्वारा सामाजिक दूरी मापनी में सम्मिलित किये गये सात कथन निम्नांकित है -
  1. विवाह द्वारा निकट संबंधी के रूप में 
  2. अपने क्लब में जिगरी दोस्त के रूप में 
  3. अपने मोहल्ले में पड़ोसी के रूप में 
  4. अपने पेशे में नौकरी देकर
  5. अपने देश में नागरिक के रूप में 
  6. अपने देश में केवल अतिथि के रूप में 
  7. अपने देश से निकाल कर बाहर करूंगा


गटमैन संचयी मापनी विधि 

इस विधि का प्रतिपादन द्वितीय विश्व युद्ध में अमेरिकन सिपाहियों की मनोवृत्ति का अध्ययन करने के लिए गटमैन ने किया। इस विधि का सार तत्व यह है कि इसमें मनोवृत्ति मापने के लिए एक ऐसी मापनी तैयार की जाती है जिसके सभी एकांशो द्वारा एक ही विमा का मापन होता है।
इस तरह की मापनी को एक विमीय मापनी भी कहा जाता है गटमैन के अनुसार एक विमीय मापनी की मुख्य विशेषता यह होती है कि किसी एकांश पर व्यक्ति की अनुक्रिया के बारे में सभी एकांशो पर प्राप्त अंकों के कुल योग जिसे कुल प्राप्तांक कहा जाता है के आधार पर बतलाया जा सकता है इसका मतलब यह हुआ कि अगर मापनी एक विमीय है तो उच्चतम कुल प्राप्तांक प्राप्त करने वाला व्यक्ति मापनी के प्रत्येक कथन पर अपने से कम कुल प्राप्तांक करने वाले व्यक्ति से ऊपर होगा।
एक विमीय मापनी के इन गुणों को उदाहरण में दिखाया गया है -
  1. मेरी ऊंचाई 6 फिट से अधिक है।    सहमत      असहमत
  2. मेरी ऊंचाई 5 फिट से अधिक है।    सहमत      असहमत
  3. मेरी ऊंचाई 4 फिट से अधिक है।    सहमत      असहमत 

इस उदाहरण में व्यक्ति एकांश संख्या 1 से सहमत होता है तो वह बाकी दो कथनो से भी सहमत होगा।
अतः मात्र संख्या एक की अनुक्रिया जानकर बाकी सभी कथनो की अनुक्रिया को पुनरूत्पादित किया जा सकता है। इससे गटमैन ने पुनरावर्तनीयता गुणांक कहा है। इन विभिन्न मापनियो में थर्स्टन विधि, लिकर्ट विधि तथा गटमैन विधि की उपयोगिता मनोवृत्ति मापने में अन्य विधियों से काफी अधिक है।

अप्रच्छन्न असंरचित विधि

इस विधि द्वारा भी मनोवृत्ति की माप सीधे अर्थात अप्रच्छन्न रूप से होती है इस विधि को असंरचित इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनमें आने वाली प्रविधियां जैसे - सर्वे साक्षात्कार तथा जीवन संबंधी टिप्पणीयां एवं लेख विश्लेषण आदि कुछ ऐसी होती हैं जिनमें शोधकर्ता या प्रयोगकर्ता को एक निश्चित औपचारिक नियम को नहीं मानना पड़ता है।

सर्वे साक्षात्कार 
(Crutch Kretchfield & Ballechy, 1962) ने बताया कि सभी मनोवृत्ति मापनियों का एक सामान्य दोष यह है कि माप किये जाने वाला व्यक्ति सामने उपस्थित होना चाहिए।परन्तु समाज मनोवृत्ति शोध में ऐसी अनेक परिस्थितियां भी आतीं हैं जिनमें शोधकर्ता व्यक्तियों से दूर दराज में होता है और उनकी मनोवृत्ति को मापना भी आवश्यक समझता है इस तरह की मांग को पूरा करने के लिए सर्वे साक्षात्कार का प्रतिपादन किया गया।
सर्वे साक्षात्कार में शोधकर्ता बड़ी जनसंख्या से प्रतिनिधि प्रतिदर्श को चुनकर पहले से निर्मित प्रश्नों को उनसे एक एक करके पूछता है प्रायः वह दो तरह के प्रश्नों का निर्माण करता है निश्चित वैकल्पिक प्रश्न तथा मुक्तोत्तर प्रश्न।

जीवन संबंधी टिप्पणीयां एवं लेख विश्लेषण 
इस विधि में चिठ्ठी, आत्मकथा, जीवनी, लिखित या मौखिक साक्षात्कार में व्यक्त किए गए मतों का विश्लेषण करके मनोवृत्ति की माप की जाती है।

प्रच्छन्न असंरचित विधि 

मनोवृत्ति मापन की यह विधि पहले के दोनों विधियों से भिन्न है पहले के दोनों तरह के विधियों में व्यक्ति की मनोवृत्ति सीधे मापी जाती है दूसरे शब्दों में व्यक्ति को पता होता है कि उसकी मनोवृत्ति की माप की जा रही है। परन्तु प्रच्छन्न विधि में व्यक्ति को यह पता नहीं होता है कि उनकी अनुक्रियाओं द्वारा उसकी मनोवृत्ति की माप की जायेगी। अतः इस विधि में मनोवृत्ति की माप परोक्ष रूप से होती है। प्रच्छन्न असंरचित विधि में मनोवृत्ति की माप में उन विधियों को सम्मिलित किया जाता है जो मनोवृत्ति की माप अस्पष्ट एवं असंरचित परिस्थिति के प्रति अनुक्रिया द्वारा परोक्ष रूप से करती है। प्रक्षेपी प्रविधि इसका सबसे प्रमुख उदाहरण है।
प्रक्षेपी विधि द्वारा मनोवृत्ति मापने का सबसे बड़ा गुण यह बतलाया गया है कि इसमें व्यक्ति द्वारा किसी प्रकार की नकली अनुक्रिया नहीं की जाती है क्योंकि व्यक्ति को यह पता नहीं होता है कि उसके अनुक्रिया द्वारा उसकी मनोवृत्ति की माप होगी।


प्रच्छन्न संरचित विधि 

इस विधि में भी मनोवृत्ति की माप परोक्ष (directly) रूप से होती है फिर भी यह विधि प्रच्छन्न असंरचित विधि से एक महत्वपूर्ण अर्थ में भिन्न है। 
प्रच्छन्न संरचित विधि में मनोवृत्ति को मापने के लिए जिस परिस्थिति का उपयोग किया जाता है वह स्पष्ट होता है तथा उसकी एक अर्थपूर्ण संरचना होती है। 
प्रच्छन्न संरचित विधि का एक अच्छा उदाहरण (Hommond, 1948) का त्रुटि पसन्द प्रविधि है इस विधि द्वारा उन्होंने मजदूर मालिक के सम्बन्धों के प्रति मनोवृत्ति को मापा था।
इस विधि में कुछ ऐसे एकांश तैयार किये जाते हैं जो मनोवृत्ति वस्तु के सम्बन्ध में तथ्यपूर्ण आंकड़ा देते हैं परन्तु वास्तव में वे सभी आंकड़े गलत होते हैं। उस व्यक्ति को जिसकी माप करनी होती है उन गलत आंकड़ों में से किसी एक को (जिसे वह अधिक सही एवं उचित समझता है) चुनकर उत्तर देना होता है। दिये गये उत्तरो के आधार पर उसकी मनोवृत्ति की माप की जाती है।

राष्ट्रीयकरण के प्रति व्यक्ति की मनोवृत्ति को मापने के लिए इस विधि के उदाहरण के रूप में एक दो एकांश इस प्रकार तैयार किये जा सकते हैं।

1. राष्ट्रीयकरण करने से भारत सरकार को प्रति वर्ष घाटा होता है ।
     20 करोड़         15 करोड़           8 करोड़ 

2. राष्ट्रीयकृत संस्था में उत्पादन की मात्रा प्रति वर्ष कमती जाती है।
  5% की दर से     8% की दर से      10% की दर से 

इस ढंग से कई एकांश तैयार कर लिये जाते हैं और प्रत्येक एकांश द्वारा तथ्यपूर्ण आंकड़े प्रस्तुत किये जाते हैं जो वास्तव में सभी के सभी गलत होते हैं। परन्तु प्रयोज्य को उसका पता नहीं होता है और वह आंकड़ों को सही समझकर जवाब देता है।

उदाहरण के तौर पर कुछ मापनियों के लिंक दिए गए हैं जो स्नातक द्वितीय वर्ष के छात्रों के प्रायोगिक परीक्षण में उपयोगी हैं।

Abnormal psychology (definition & nature) | criteria of abnormality | classification of Abnormality

Abnormal psychology 

असामान्य मनोविज्ञान मनोविज्ञान की एक शाखा है जिसमें असामान्य व्यक्तियों के व्यवहारों एवं मानसिक प्रक्रियाओं का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है इसे मनोविकृति विज्ञान भी कहा जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ है मन का रोगविज्ञान।

इससे स्पष्ट है कि असामान्य मनोविज्ञान का विषय वस्तु असामान्य व्यवहार का अध्ययन करना है।


(Strange 1977) के अनुसार "असामान्य मनोविज्ञान मनोविज्ञान की वैसी शाखा है जिसका संबंध विकृत व्यवहारों के निदान, वर्गीकरण, उपचार एवं उनकी व्याख्या करने के लिए उपर्युक्त सिध्दांतों से होता है।"

(Carson & Butcher 1922) के अनुसार "असामान्य मनोविज्ञान या मनोरोग विज्ञान को लम्बे अरसे से मनोविज्ञान का एक ऐसा क्षेत्र समझा जाता है जो असामान्य व्यवहार को समझने, उपचार तथा उनके रोकथाम से संबंधित है।"

(Altmanns & Emery 1995) के अनुसार "मानसिक रोगों के अध्ययन में मनोवैज्ञानिक विज्ञान का उपयोग ही असामान्य मनोविज्ञान कहलाता है।"


असामान्य मनोविज्ञान की प्रकृति 

  1. असामान्य मनोविज्ञान मनोविज्ञान की एक विशिष्ट शाखा है।
  2. असामान्य मनोविज्ञान को मनोविकृति विज्ञान भी कहा जाता है।
  3. असामान्य मनोविज्ञान में असामान्य व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है।
  4. असामान्य मनोविज्ञान में असामान्य व्यवहारों की सैध्दांतिक व्याख्या की जाती है।


असामान्य व्यवहार की कसौटियां  (criteria of abnormality or Abnormal behaviour)

असामान्य व्यवहार को मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों के अनुसार विभिन्न कसौटियों के आधार पर परिभाषित करने की कोशिश की गयी है। जो निम्नांकित हैं -
  • सांख्यिकीय अबारंबारता की कसौटी
  • मानक अतिक्रमण की कसौटी
  • व्यक्तिगत व्यथा की कसौटी
  • अयोग्यता या दुष्क्रिया की कसौटी
  • अप्रत्याशा की कसौटी
इन पांचों कसौटियों के आधार पर असामान्य व्यवहार को अलग-अलग ढंग से परिभाषित किया गया है।

सांख्यिकीय अबारंबारता की कसौटी

इस कसौटी के अनुसार वे सभी व्यवहार असामान्य होते हैं जो सांख्यिकीय औसत से विचलित होते हैं जो व्यवहार उस औसत में आते हैं वे सामान्य होते हैं और जो उसमें नहीं आते उन्हें असामान्य कहा जाता है।

जैसे - जिन व्यक्तियों की बुध्दि लब्धि 70 से कम होता है उसे मानसिक रूप से मंद कहा जाता है। परन्तु जिनका 70 होता है उन्हें सामान्य कहा जाता है।


इस कसौटी के दोष
इस कसौटी के अनुसार न केवल औसत से कम बुद्धि लब्धि वाले बल्कि औसत से ऊपर जैसे 140 या 160 या इससे अधिक बुध्दि लब्धि वाले व्यक्ति भी असामान्य कहलायेंगे। जो कि गलत है।

मानक अतिक्रमण की कसौटी

प्रत्येक व्यक्ति एक समाज में रहता है और प्रत्येक समाज के अपने मानक होते हैं जो यह बतलाते हैं कि व्यक्ति को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। जब व्यक्ति का व्यवहार मानक के अनुकूल होता है तो उसे सामान्य कहा जायेगा और जब व्यक्ति का व्यवहार समाज के मानकों का अतिक्रमण करता है तो उसे असामान्य कहा जायेगा।

जैसे कुछ समाज के मानकों में अपने ही चचेरे फुफेरे भाई बहनों में शादी करना आम बात होती है। यदि ऐसी शादी होती है तो उसे सामान्य कहा जायेगा।
परन्तु कुछ समाज में ऐसी शादियां समाज के मानकों के विपरित होती हैं। यदि समाज के मानकों का अतिक्रमण करके ऐसी शादी होती है तो उसे असामान्य कहा जायेगा।

इस कसौटी के दोष
एक ही व्यवहार एक समाज या संस्कृति में सामान्य हो सकता है परंतु वही व्यवहार दूसरे समाज या संस्कृति में असामान्य हो सकता है। ऐसी परिस्थिति में इस कसौटी के अनुसार असामान्य व्यवहार का कोई सार्विक परिभाषा देना संभव नहीं है।

व्यक्तिगत व्यथा की कसौटी

अगर व्यक्ति का व्यवहार ऐसा होता है जिससे उसमें अधिक तकलीफ या यातना उत्पन्न होता है तो उसे असामान्य व्यवहार कहा जायेगा। जैसे - दुश्चिंता विकृति (anxiety desorder) तथा विषाद (depression) से ग्रस्त व्यक्तियों को अधिक यातना सहना पड़ता है । 
असामान्य व्यवहार को परिभाषित करने की यह कसौटी या उपागम पहले के दोनों कसौटियों से अधिक उदारवादी है क्योंकि इसमें लोग अपनी समान्यता की परख स्वयं ही करते हैं न कि कोई समाज या विशेषज्ञ।

इस कसौटी के दोष
सभी तरह के व्यक्तिगत यातना या व्यथा उत्पन्न करने वाले व्यवहार को असामान्य नहीं कहा जा सकता है। जैसे - तीव्र भूख, तीव्र प्यास, किसी तरह के साधारण दर्द या चोट निश्चित रूप से व्यक्ति को यातना देते हैं लेकिन इसे असामान्य व्यवहार नहीं कहा जायेगा।

अयोग्यता या दुष्क्रिया की कसौटी 

अगर कोई व्यक्ति अपनी लक्ष्य की प्राप्ति करने में अयोग्यता के कारण असमर्थ रहता है तो उसके इस व्यवहार को असामान्य कहा जायेगा।
(Wakefield) ने इस क्षेत्र में किये गये शोधों का विश्लेषण करने के बाद यह बतलाया कि असामान्य व्यवहार का एक महत्वपूर्ण तत्व दुष्क्रिया भी है।
दुष्क्रिया से तात्पर्य व्यक्ति के किसी प्रक्रम के स्वाभाविक कार्यवाही का इस तरह से असफल हो जाने से होता है कि उससे व्यक्ति को हानि हो जाती है। जैसे यदि कोई व्यक्ति तैरना अच्छी तरह से आता है और वह यह भी जानता है कि पानी में उसे किसी प्रकार का कोई खतरा नहीं है परन्तु फिर भी वह पानी में प्रवेश करने में डरता है।

इस कसौटी के दोष 
अयोग्यता कुछ व्यवहारों के लिए सही है न कि सभी तरह के व्यवहार के लिए।
कुछ विशेषताएं ऐसी होती हैं जिन्हें अयोग्यता कहा जा सकता है लेकिन फिर भी उनका अध्ययन असामान्य मनोविज्ञान में नहीं होता है क्योंकि उन्हें असामान्य व्यवहार नहीं कहा जा सकता। जैसे पुलिस सेवा में पदाधिकारी बनने के लिए निर्धारित शारीरिक ऊंचाई का किसी व्यक्ति में न होना। स्वभावतः यह उसकी एक अयोग्यता है। परन्तु इसे असामान्य व्यवहार नहीं कहा जा सकता है।

अप्रत्याशा की कसौटी

असामान्य व्यवहार पर्यावरणीय तनाव उत्पन्न करने वाले उद्दीपक के प्रति एक तरह का अप्रत्याशित अनुक्रिया ही होता है। जैसे जब व्यक्ति अपनी वित्तीय मजबूती के बावजूद भी अपनी आर्थिक स्थिति के बारे में लगातार चिंतिंत रहता है और जब यह चिंता सामान्य अनुपात से अधिक हो जाता है तो इससे व्यक्ति में चिंता रोग उत्पन्न हो जाता है।

इस कसौटी के दोष 
इस कसौटी को भी सर्वमान्य कसौटी नहीं कहा जा सकता क्योंकि सभी अप्रत्याशित व्यवहार को असामान्य व्यवहार नहीं कहा जा सकता है। जैसे रास्ते में जाते समय अचानक सांप देखकर डरकर चिल्लाना एक अप्रत्याशित व्यवहार है परन्तु इसे असामान्य व्यवहार नहीं कहा जायेगा।


Four 'D' of Abnormal Behaviour 

असामान्य व्यवहार को परिभाषित करने वाले इन कसौटियों पर सर्वमान्य सहमति नहीं है क्योंकि ऐसी कोई भी कसौटी नहीं है जो असामान्य व्यवहार की एक ऐसी व्याख्या करे जो हर परिस्थिति में मान्य हो।
इसलिए असामान्य व्यवहार को four 'D' के रूप में समझने पर आम सहमति है -
1. विचलन (Deviance)
इसके अन्तर्गत उन व्यवहारों को असामान्य व्यवहार की श्रेणी में रखा जाता है जो सामाजिक मानकों से भिन्न एवं असाधारण होते हैं।

2. तकलीफ (Distress)
असामान्य व्यवहार वैसे व्यवहार को कहा जाता है जो स्वयं व्यक्ति के लिए दुखदायी या तकलीफदेह होता है।

3. दुष्क्रिया (Dysfunction)
असामान्य व्यवहार वैसे व्यवहार को कहा जाता है जो व्यक्ति के दिन प्रतिदिन के व्यवहार या क्रिया को करने में बाधक सिध्द होता है यह व्यक्ति को इतना अशांत कर देता है कि वह साधारण सामाजिक परिस्थिति या कार्य में भी अपने आपको ठीक ढंग से समायोजित नहीं कर पाता है।

4. खतरा (Danger)
असामान्य व्यवहार सामान्यतः स्वयं व्यक्ति या रोगी के लिए खतरनाक तो होता ही है साथ ही साथ वह अन्य व्यक्तियों के लिए भी खतरनाक साबित होता है। क्योंकि ऐसे व्यक्तियों में असावधानी, खराब निर्णय तथा विद्वेष या कुव्याख्या आदि अधिक होता है अतः उनका व्यवहार अपने एवं दूसरों के कल्पना के ख्याल से कहीं अधिक चिंताजनक होता है।


Classification of Abnormality 

असामान्य व्यवहारों का वर्गीकरण मनोचिकित्सक एवं नैदानिक मनोवैज्ञानिकों का एक मुख्य विषय रहा है। यहां वर्गीकरण से तात्पर्य असामान्य व्यवहारों को ऐसे श्रेणियों में विभक्त करने से होता है जिनसे उनके स्वरूप को ठीक ढंग तथा स्पष्ट रूप से समझा जा सके। श्रेणीकरण के इस प्रविधि को निदान (diagnostic) कहा जाता है।

(Seligman & Rosenhan 1998) के अनुसार "व्यवहारपरक एवं मनोवैज्ञानिक पैटर्न के अनुसार मनोवैज्ञानिक विकृतियों का श्रेणीकरण ही निदान (diagnostic) कहलाता है।"

असामान्य व्यवहारों को वर्गीकृत करने के लिए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दो प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के वर्गीकरण तंत्र अस्तित्व में आये। 1948 में विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO ने (International statical classification of disease, injuries and causes of death or ICD) के छठा संस्करण का प्रकाशन किया। जिसमें मानसिक रोगों का एक औपचारिक वर्गीकरण का प्रकाशन किया गया जिसकी मान्यता ब्रिटेन समेत अन्य कई देशों में काफी रही। इस वर्गीकरण में अमेरिकन मनोचिकित्सकों ने अहम भूमिका निभाई थी। ICD के प्रकाशन के तुरंत बाद (American Psychiatric Association) अमेरिकन मनोचिकित्सक संघ ने एक तुलनात्मक रूप से अधिक प्रभावकारी वर्गीकरण तंत्र का प्रकाशन किया। जिसे (Diagnostic and statical Manual of Mental Desorder or DSM) कहा गया । इसे DSM-I कहा गया जिसका प्रकाशन वर्ष 1952 में किया गया। तत्पश्चात ICD और DSM के संशोधित और नये संस्करण प्रकाशित किये गये। 
जिसके संस्करण और प्रकाशित वर्ष निम्नांकित हैं -

अमेरिकन मनोचिकित्सक संघ द्वारा प्रकाशित वर्गीकरण तंत्र 
DSM -I 1952
DSM-II 1968
DSM-III 1980
DSM-III R 1987
DSM-IV 1994
DSM-IV TR 2000
DSM-V 2013

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रकाशित वर्गीकरण तंत्र 
ICD-1  (1900)
ICD-2 (1910)
ICD-3 (1921)
ICD-4 (1930)
ICD-5 (1939)
ICD-6 (1949)
ICD-7 (1958)
 ICD-8 (1968)
ICD- 9 (1979)
ICD-9-CM (1980)
ICD-10 (1993)
ICD-10-CM (1999)
ICD-11  (2022)

असामान्य मनोविज्ञान का इतिहास | History of Abnormal Psychology

असामान्य मनोविज्ञान के इतिहास को (kisker, 1985) ने तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया है
  • पूर्व वैज्ञानिक काल : पुरातन समय से लेकर 1800 तक
  • असामान्य मनोविज्ञान का आधुनिक उद्धव :1801 से 1950 तक
  • आज का असामान्य मनोविज्ञान : 1951 से लेकर आज तक 

पूर्व वैज्ञानिक काल 

इस काल में मानसिक रोगियों एवं उनके उपचार के बारे में चिकित्सकों एवं आम लोगों में एक अजीब उतार चढ़ाव आया जिसका संक्षिप्त विवरण निम्नांकित चार भागों में बांटकर किया गया है

1. पाषाण युग का जीववादी चिन्तन
सचमुच में असामान्य व्यवहार एवं उसके उपचार की शुरुआत पाषाण युग के एक महत्वपूर्ण संप्रत्यय (concept) के विचारों से प्रेरित मानी जाती है जिसे जीववाद (Animism) कहा जाता है। जीववाद के विचारधारा के अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु जैसे हवा, पानी, पेड़ पौधे, पत्थर आदि के भीतर कोई अलौकिक जीव होता है और इन वस्तुओं में गति इसलिए होता है क्योंकि उसके भीतर अलौकिक प्राणी या देवता का वास होता है। इसी कारण पत्थर लुढ़कते है, हवा बहती है, पेड़ पौधे बढ़ते हैं, नदी तथा झरनों में पानी बहता है।
जीववाद के अनुसार व्यक्ति द्वारा असामान्य व्यवहार दिखलाने का मूल कारण उसके भीतर किसी आत्मा, अपदूत या पिशाच या भूत-प्रेत प्रवेश कर जाता है। अर्थात जब व्यक्ति के शरीर पर किसी बुरी या दुष्ट आत्मा का अधिकार हो जाता है तो व्यक्ति मानसिक रोग से ग्रसित हो जाता है।

इसी प्रकार प्राचीन काल में ग्रीक, चीन तथा मिस्र आदि देशों के हेब्रुज निवासियों का भी कुछ ऐसा ही मानना था कि जब व्यक्ति के प्रति ईश्वर की कृपादृष्टि समाप्त हो जाती है तो ईश्वर अभिशाप या दण्ड के रूप में व्यक्ति में असामान्य व्यवहार विकसित कर देता है।

उस समय मानसिक रोग के उपचार की दो विधियां अधिक लोकप्रिय थी अपदूत निसारन (exorcism) तथा ट्रिफीनेशन (trephination)

अपदूत निसारन एक ऐसी विधि थी जिसमें विभिन्न तरह के प्रविधियों के सहारे शरीर के भीतर मौजूद अपदूत या बुरी आत्मा को बाहर निकाला जाता था इन प्रविधियों में प्रार्थना, जादू टोना, शोर गुल, झाड़ फूंक तथा अन्य कष्टदायक विधियां जैसे कीड़े लगाना, लम्बे समय तक भूखा रखना, भेड़ों की लेडीं तथा शराब मिलाकर तैयार किया गया शोधक खिलाना आदि सम्मिलित थे। उनका ऐसा मानना था कि इन प्रविधियों से ग्रसित व्यक्ति का शरीर इतना कष्टदायक एवं दुखद हो जायेगा कि व्यक्ति के शरीर में प्रवेश किया अपदूत या बुरी आत्मा अपने आप शरीर छोड़कर भाग जायेगी और व्यक्ति स्वस्थ हो जायेगा।

एक दूसरी प्रविधि थी जिनके सहारे मानसिक रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों के भीतर मौजूद बुरी आत्मा को बाहर निकाला जाता था इस विधि में नुकीले पत्थरों से मार मारकर ऐसे व्यक्तियों के खोपड़ी में एक छेद कर दिया जाता था ताकि बुरी आत्मा बाहर निकल जाए और व्यक्ति स्वस्थ हो जाये।


2. प्रारंभिक दार्शनिक एवं मेडिकल विचारधाराएं

प्राचीन ग्रीक के स्वर्ण युग में अर्थात आज से 2500 वर्ष पहले मानसिक रोगों तथा असामान्य व्यवहार के संबंध में एक विकेकी तथा वैज्ञानिक विचारधारा का जन्म हुआ। जिसका श्रेय ग्रीक दार्शनिक हिपोक्रेट्स को जाता है जिन्हें आधुनिक चिकित्साशास्त्र (modern medicine) का जनक भी माना जाता है।
मानसिक रोगों के संबंध में हिपोक्रेट्स का क्रांतिकारी विचार यह था कि मानसिक रोग या शारीरिक रोग की उत्पत्ति कुछ स्वाभाविक कारणों से होता है न कि शरीर के भीतर बुरी आत्मा के प्रवेश कर जाने से या देवी-देवताओं के प्रकोप से जैसा पहले माना जाता था। हिपोक्रेट्स के इस विचार को प्रकृतिवाद (Naturalism) कहा गया। जो जीववाद के विचारधारा के प्रतिकूल था।

इस विचारधारा का वर्णन चार भागों में बांटकर किया गया है -

i. हिपोक्रेट्स का योगदान

हिपोक्रेट्स का मत था कि शारीरिक रोगों के समान मानसिक रोग भी कुछ स्वाभाविक कारणों से उत्पन्न होते हैं तथा शारीरिक रोगियों के समान मानसिक रोगियों का भी मानवीय देखभाल के आवश्यकता पर उन्होंने जोर दिया। इनका यह भी विचार था कि सभी तरह के बौद्धिक क्रियाओं का केन्द्रीय अंग मस्तिष्क होता है इसलिए सभी मानसिक बिमारियों का मूल कारण मस्तिष्कीय विकृति है।
इन्होंने सभी मानसिक बिमारियों को तीन श्रेणियों (अर्थात उन्माद, विषाद रोग, उन्मत्तता या मस्तिष्कीय ज्वर) में बांटकर इनका नैदानिक चित्रण भी किया।
इन्होंने यह भी बतलाया की मस्तिष्क में चोट या आघात से तथा पर्यावरणीय कारकों से भी मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं।

असामान्य मनोविज्ञान का इतिहास | History of Abnormal Psychology

ii. प्लेटो एवं अरस्तू का योगदान

अपराधजन्य क्रिया करने वाले मानसिक रोगियों का अध्ययन अन्य ग्रीक दार्शनिकों जैसे प्लेटो एवं उनके शिष्य अरस्तू द्वारा किया गया।
प्लेटो का विचार था कि चूंकि ऐसे मानसिक रोगी अपराधजन्य क्रियाओं के लिए प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेवार नहीं होते हैं इसलिए उन्हें सामान्य अपराधियों के समान दण्डित नहीं किया जाना चाहिए। प्लेटो का यह भी मत था कि व्यक्ति का व्यवहार एवं चिंतन सामाजिक सांस्कृतिक कारकों द्वारा काफी हद तक निर्धारित होता है।

इन सभी आधुनिक विचारों के बावजूद इनका मत ये भी था कि कुछ मानसिक रोग तथा असामान्य व्यवहार दैविक कारकों द्वारा भी उत्पन्न होते है।

असामान्य मनोविज्ञान का इतिहास | History of Abnormal Psychology

iii. उत्तर ग्रीक एवं रोमवासियों का योगदान

हिपोक्रेट्स के बाद ग्रीक एवं रोमन चिकित्सक मानसिक रोगियों एवं असामान्य व्यवहार के अध्ययन में उनके द्वारा बतलाये गये मार्ग का अनुसरण करते रहे। मिस्र में चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति हुई वहां के अनेक मंदिरों एवं गिरिजाघरों को प्रथम दर्जे के आरोग्यशाला में बदल दिया गया जहां के सुखद एवं आनन्द दायक वातावरण में मानसिक रोगियों को रखने का विशेष प्रावधान किया गया।

कुछ रोमन चिकित्सको जैसे (Asclepiades , Cicero , Aretaeus) तथा (Galen) आदि द्वारा भी मानसिक रोगों के अध्ययन में महत्वपूर्ण योगदान दिया गया।

(Asclepiades) ने सबसे पहले तीव्र एवं चिरकालिक मानसिक रोगों के बीच अंतर किया तथा भ्रम, विभ्रम एवं व्यामोह के बीच स्पष्ट अंतर किया।

(Cicero) ने यह बतलाया कि शारीरिक रोग कि उत्पत्ति में सांवेगिक कारकों की भूमिका अधिक होती है।

(Aretaeus) ने सबसे पहले यह बताया कि उन्माद तथा विषाद एक ही बिमारी के दो मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्ति है। 
इनका विचार था कि जो लोग चिड़चिड़े तथा आक्रोशी होते हैं उनमें उन्माद जैसा मानसिक रोग उत्पन्न होने की सम्भावना होती है तथा जो व्यक्ति अधिक सुस्त एवं गंभीर प्रकृति के होते हैं उनमें विषाद जैसे मानसिक रोग उत्पन्न होने कि संभावना अधिक होती है।

(Galen) एक ग्रीक चिकित्सक थे जो रोम में आकर बसे थे इन्होंने मानसिक रोग के कारणों को दो श्रेणियों में बांटा - मानसिक कारण तथा शारीरिक कारण।
मानसिक कारणों में मस्तिष्क का दुर्घटनाग्रस्त हो जाना, अतिमद्यपान करना, डर, आघात, मासिक धर्म में गड़बड़ी, आर्थिक मंदता तथा प्रेम निराशा आदि प्रमुख बतलाये गये हैं।

असामान्य मनोविज्ञान का इतिहास | History of Abnormal Psychology


जब ग्रीक एवं रोमन सभ्यता का सूर्यास्त होने लगा अर्थात् जब गैलन की मृत्यु 200 A.D. में हुई। और इन दार्शनिकों तथा चिकित्सकों द्वारा बतलाये गये विचार और उपचार की विधियां प्रभावहीन होने लगीं। फिर से लोग एवं चिकित्सक भी मानसिक रोग का कारण दुष्ट आत्मा का शरीर में प्रवेश कर जाना तथा दैविक प्रकोप को मानने लगे। इसे मनोविज्ञान के इतिहास में अन्धकार युग कहा जाता है जो 500 A.D. तक माना गया है। तथा 500 A.D. से 1500 A.D. तक के समय को मध्य युग कहा जाता है।

iv. इस्लामिक देशों में ग्रीक विचारों की मान्यता 

मध्य युग के दौरान कुछ इस्लामिक देशों में पहले के ग्रीक चिकित्सकों के विचारों का प्रभाव बना रहा। बगदाद में पहला मानसिक अस्पताल खोला गया और ऐसा ही अस्पताल डमासकस एवं एलेप्पो में भी खोला गया। इन मानसिक अस्पतालों में रोगियों के साथ मानवीय व्यवहार करने तथा उपचार के मानवीय ढंगों पर अधिक बल डाला गया।
इस्लामिक चिकित्सा विज्ञान के सबसे प्रमुख चिकित्सक (Avicenna) हैं जिन्हें "चिकित्सकों का राजकुमार" (Prince of physicians) कहा जाता है इन्होंने अपनी पुस्तक (The Canon of Medicine) में कुछ मानसिक रोगों जैसे हिस्ट्रीया, मिर्गी, उन्माद, तथा विषाद आदि का विस्तृत रूप से अध्ययन किया और इनके मानवीय उपचार को बढ़ावा दिया।

3. मध्य युग में पैशाचिकी 

जैसा कि बताया जा चुका है कि 500 से 1500 के समय को मध्य युग कहा जाता है। अन्धकार युग तथा मध्य युग में मानसिक रोगों के प्रति लोगों एवं चिकित्सकों के करीब - करीब एक समान विचार थे।
अन्धकार युग की शुरुआत ग्रीक एवं रोमन सभ्यता के सूर्यास्त तथा ईसाईयत के सूर्योदय से होती है। इस अवधि के चिकित्सकों एवं लोगों में एक बार फिर इस विश्वास की प्रधानता पायी गयी कि जब व्यक्ति के शरीर में बुरी आत्मा प्रवेश कर जाती है तो उसमें मानसिक रोग उत्पन्न हो जाता है। और इस विश्वास को सदृढ़ होने में ईसाईयत के बढ़ते बोलबाला ने आग में घी डालने का काम किया। इसी काल में यूरोप में नृत्योन्माद या टेरेन्टिज्म और वृकोन्माद जैसे मानसिक रोग भी तेजी से फैलने लगे।
सामूहिक पागलपन या टेरेन्टिज्म
इस बिमारी से ग्रसित व्यक्ति अपने घरों से बाहर आकर एक साथ मिलकर असंगत व्यवहार जैसे - उछलना कूदना, रोना, एक दूसरे के कपड़े फाड़ देना आदि करना प्रारंभ कर देते थे। इस सामूहिक पागलपन को इटली में टेरेन्टिज्म की संज्ञा दी गई।
वृकोन्माद
वृकोन्माद में मानसिक रोगी को ऐसा प्रतीत होता था कि वह एक भेड़िया बन गया है। अतः वह भेड़िया के समान ही बोलता था तथा उछलता कूदता था।

4. मानवीय दृष्टिकोण का उद्भव

16वीं शताब्दी के प्रारंभ में ही चिकित्सा विज्ञान के लोग मानसिक रोगियों के प्रति अंधविश्वासी एवं अमानवीय दृष्टिकोण को गलत बतलाते सामूहिक रूप से यह कहा कि मानसिक रोग किसी दुष्ट आत्मा या दैविक प्रकोप के कारण नहीं होता है। यह एक बिमारी है जिसका उपचार अन्य बिमारियों के समान मानवीय ढंग से होना चाहिए। इन चिकित्सकों में (Paracelsus), (Johann Weyer), (Raginald Scott) प्रमुख थे।

मानसिक रोगियों के प्रति सही मायनों में मानवता का दृष्टिकोण फ्रेंच चिकित्सक phillip pinel के सक्रिय प्रयासों से प्रारंभ हुआ। इन्हें आधुनिक मनोरोग विज्ञान (Modern Psychiatry) का जनक भी कहा जाता है। इन्होंने मानसिक रोगियों को लोहे की जंजीर से मुक्त कराया और उनके साथ मानवीय व्यवहार करने को कहा। जिसका परिणाम यह हुआ कि मानसिक रोगियों ने अपने उपचार में सहयोग दिखाना प्रांरभ कर दिया।

असामान्य मनोविज्ञान का इतिहास | History of Abnormal Psychology

असामान्य मनोविज्ञान का आधुनिक उद्भव 

बेन्जामिन रश ने मानसिक रोगियों का मानवीय उपचार करने के ख्याल से उनके लिए एक अलग रोगीकक्ष तैयार करवाया। और उनके तरह - तरह के मनोरंजन के साधन रखे ताकि उन्हें रूचिकर कार्यो को करने के लिए प्रेरित किया जाए। बाद में रश ने पुरुष मानसिक रोगियों तथा स्त्री मानसिक रोगियों के लिए अलग-अलग रोगीकक्ष बनवाया। 
इन सब के बावजूद इनका सिध्दांत नक्षत्रशास्त्र से प्रभावित था और इनके लिए प्रमुख उपचार विधि रक्तमोचन तथा भिन्न-भिन्न तरह के शोधक (purgatives) का उपयोग किया जाना ही था। जो स्पष्टतः अमानवीय विधियां थी।

19वीं शताब्दी के प्रारंभ में एक महिला स्कूल शिक्षिका डोरोथिया डिस्क ने एक आन्दोलन की शुरुआत की। जिसका नाम मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान आन्दोलन (mental hygiene movement) था। हालांकि यूरोप में मानसिक रोगियों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण 18वीं शताब्दी के अन्तिम के कुछ वर्षों पहले ही प्रांरभ हो गया था। परन्तु अमेरिका में इसकी शुरुआत 19वीं शताब्दी में हुई। इस आन्दोलन का उद्देश्य यह था कि मानसिक रोगियों को बंधन मुक्त कर दिया जाए और उन्हें ऐसे रोगीकक्ष में रखा जाए। जहां पर्याप्त हवा और धूप हो तथा उनकी नैतिकता के स्तर को बढ़ाने के लिए कुछ स्वीकारात्मक क्रियाएं जैसे खेती-बाड़ी करना, बढ़ईगिरी करना आदि कार्यों में लगाया जाए।

असामान्य मनोविज्ञान का इतिहास | History of Abnormal Psychology

अमेरिका के अलावा इस काल में फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रिया में भी असामान्य मनोविज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किए गए। फ्रांस के (Anton Mesmer) ने पशु चुम्बकत्व पर कार्य करके लोगों को चौंका दिया। पशु चुम्बकत्व को मेस्मेरिज्म की संज्ञा दी गई और बाद में इसे सम्मोहन (hypnosis) कहा गया।
इस प्रविधि में वे रोगियों में बेहोशी जैसी मानसिक स्थिति उत्पन्न कर देते थे। इसके बाद मानसिक रोगों के उपचार में कई चिकित्सक जैसे लिबाल्ट, बर्नहिम तथा शार्कों ने सम्मोहन का सफलतापूर्वक प्रयोग किया।
विल्हेम ग्रिसिंगर तथा एमिल क्रेपलिन इन दोनों चिकित्सकों ने मानसिक रोगों को एक दैहिक आधार मानते हुए इस बात पर बल डाला कि शारीरिक बिमारी तथा मानसिक बिमारी दोनों का स्वरूप लगभग समान होता है अर्थात जिस तरह से शरीर के किसी अंग विशेष में विकृति होने पर शारीरिक बिमारी होती है उसी तरह से मानसिक बिमारी भी किसी अंग विशेष में विकृति के फलस्वरूप ही होती है इसे मनोविज्ञान के इतिहास में "असामान्यता का अवयवी दृष्टिकोण" भी कहा जाता है।

असामान्य मनोविज्ञान का इतिहास | History of Abnormal Psychology

सिगमंड फ्रायड जो एक तंत्रिका विज्ञानी तथा मनोरोगविज्ञानी थे। फ्रायड पहले ऐसे मनोरोग विज्ञानी थे जिन्होंने मानसिक रोगों के कारणों की व्याख्या करने में दैहिक कारकों के महत्व को कम करके मनोवैज्ञानिक कारकों के महत्व को अधिक ऊंचा बतालाया।
असामान्य मनोविज्ञान के क्षेत्र में फ्रायड के योगदान में मुक्त साहचर्य विधि, अचेतन, स्वप्न विश्लेषण, मनोलैंगिक सिध्दांत, मनोरचनाएं आदि प्रमुख हैं।
(Adolf Meyer) के अनुसार असामान्य व्यवहार शारीरिक एवं मानसिक दोनों कारणों से होता है और इसलिए इसका उपचार मानसिक तथा दैहिक दोनों आधारों पर किया जाना चाहिए। मेयर के इस विचार को "मनोजैविक दृष्टिकोण" कहा जाता है।
इनके मनोजैविक सिध्दांत के अनुसार मानसिक रोग की उत्पत्ति में व्यक्ति का सामाजिक वातावरण भी एक महत्वपूर्ण कारक होता है यही कारण है कि (Rennie) ने इस सिध्दांत का नाम "मनोजैविक सामाजिक सिध्दांत" भी रखा है। मेयर का विचार था कि मानसिक रोगियों की उपयुक्त चिकित्सा तभी संभव है जब उसके जैविक पदार्थो जैसे हार्मोन्स, विटामिन को संतुलित करते हुए उसके घरेलू वातावरण के अंतर पारस्परिक सम्बन्धों को भी सुधारा जाए।

आज का असामान्य मनोविज्ञान: 1951 से अब तक 

20वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में मानसिक अस्पतालों के काले करतूत लोगों के सामने आने लगे। अमेरिका के बहुत से मानसिक अस्पतालों में देखा गया कि वहां के रोगियों के साथ अमानवीय व्यवहार इतनी क्रूरता से किया जाता था कि उनका मानसिक रोग कम होने के बजाय और बढ़ता ही जाता था और कुछ का देहान्त भी हो जाता था (Kisker) ने ऐसे मानसिक अस्पतालों के हालातों का वर्णन करते हुए कहा है कि मानसिक रोगियों को इन अस्पतालों में एक छोटे कमरे में झुण्ड बनाकर रखा जाना, ऐसे कमरों में शौचालय का न होना, धूप और हवा लगभग न के बराबर मिलना, आधा पेट भोजन दिया जाना, कमसिन लड़कियों को अस्पताल से बाहर भेजकर शारीरिक व्यापार कराया जाना, अस्पताल अधिकारीयों द्वारा गाली गलौज करना आदि काफी सामान्य था।
फलस्वरूप इन मानसिक अस्पतालों के प्रति लोगों की मनोवृत्ति खराब हो गयी। अमेरिका में आजकल इन मानसिक अस्पतालों की जगह सामुदायिक मानसिक स्वास्थ्य केंद्र ने ले लिया है इन केन्द्रों का मुख्य उद्देश्य मानसिक रोगियों की मानवीय ढंग से उत्तम उपचार करना है। इन केन्द्रों द्वारा मूलतः पांच तरह की सेवाएं प्रदान की जाती है 
  1. 24 घण्टे आपातकालीन देखभाल
  2. अल्पकालीन अस्पताली सेवा 
  3. आंशिक अस्पताली सेवा 
  4. बाह्य रोगियों की देखभाल
  5. प्रशिक्षण एवं परामर्श कार्यक्रम 
अमेरिका एवं कनाडा में ऐसे केन्द्रों की संख्या काफी अधिक है जिन्हें अपने कार्य के लिए पर्याप्त सरकारी सहायता मिलती है। आज अमेरिका एवं कनाडा में सामुदायिक मानसिक स्वास्थ्य केन्द्रों को नवीनतम रूप से संकटकालीन हस्तक्षेप केन्द्र (Crisis Intervention Cantre) कहा जाता है। आजकल एक नये तरह के हस्तक्षेप केन्द्र को कार्यरत देखा गया है जिसे हाट लाइन दूरभाष केन्द्र (hotline telephone centre) कहते हैं ऐसे केन्द्रों में चिकित्सक रात या दिन के किसी समय मात्र दूरभाष से ही सूचना प्राप्त कर मानसिक रोगियों का उपचार करते हैं।

संस्कृति और सभ्यता | समाजशास्त्र | Culture & civilization | Sociology

संस्कृति  (Culture)

MacIver and Page के अनुसार "हमारे रहने तथा सोचने के तरीकों में, रोज की अन्तः क्रियाओं में, कला में, मनोरंजन तथा आमोद प्रमोद में संस्कृति हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति ही है।"


संस्कृति की विशेषताएं (characteristics of culture)

  1. संस्कृति सीखी जाती है।
  2. संस्कृति मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करती है।
  3. प्रत्येक समाज की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति होती है।
  4. संस्कृति, समूह के लिए आदर्श होता है।
  5. संस्कृति में अनुकूलन का गुण होता है अर्थात संस्कृति में समयानुसार परिवर्तन होते रहते हैं।


संस्कृति के प्रकार (Types of culture)

Ogburn ने संस्कृति को दो भागों में विभाजित किया है -

1. भौतिक संस्कृति (Material culture)

भौतिक संस्कृति के अन्तर्गत वे सभी चीजें आ जाती है जो कि मूर्त होती है। अर्थात् जिन्हें हम प्रत्यक्ष रूप से देख या छू सकते हैं। मकान, कपड़ा, फर्नीचर, रेडियो, साइकिल, बर्तन, मूर्तियां, पुस्तकें आदि भौतिक संस्कृति के उदाहरण हैं।

2. अभौतिक संस्कृति (non material culture)

संस्कृति का वह भाग जो कि अमूर्त है अर्थात् जिन्हें देखा या छुआ नहीं जा सकता है, अभौतिक संस्कृति कहलाता है। धर्म, प्रथा, परम्परा, आदर्श, भाषा, जनरीतियां, साहित्य, विज्ञान आदि अभौतिक संस्कृति के उदाहरण हैं।


भौतिक तथा अभौतिक संस्कृति में अन्तर (difference between material & non material culture)

  1. भौतिक संस्कृति मूर्त होती है इसके विपरित अभौतिक संस्कृति अमूर्त होती है।
  2. भौतिक संस्कृति में परिवर्तन तेजी से होता है जबकि अभौतिक संस्कृति में परिवर्तन धीमी गति से होता है।
  3. भौतिक संस्कृति को नापा जा सकता है परन्तु अभौतिक संस्कृति को नाप तौल नहीं सकते हैं।
  4. भौतिक संस्कृति प्रत्यक्ष रूप से मानव निर्मित होती है जबकि अभौतिक संस्कृति सामाजिक अन्तः क्रियाओं के दौरान स्वतः विकसित होता है।


संस्कृति के घटक (Components of culture)


1. सांस्कृतिक तत्व (cultural trait)

अनेक छोटी छोटी इकाइयों से मिलकर सम्पूर्ण संस्कृति का निर्माण होता है संस्कृति की इन इकाइयों या तत्वों को ही सांस्कृतिक तत्व कहते हैं। सांस्कृतिक तत्व भौतिक और अभौतिक दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं।

सांस्कृतिक तत्व सम्पूर्ण सांस्कृतिक व्यवस्था की सबसे छोटी वह इकाई है जिसका की मानव जीवन में काम आने की दृष्टि से और विभाजन नहीं हो सकता। कुछ उदाहरणों द्वारा सांस्कृतिक तत्व की प्रकृति को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। घड़ी, पलंग, मेज, एक विश्वास, एक आदर्श, एक शब्द ये सभी सांस्कृतिक तत्व के उदाहरण हैं। एक घड़ी के दो टुकड़े कर दीजिए तो फिर वह किसी काम का नहीं रह जायेगी। इसलिए घड़ी के दो टुकड़ों को नहीं, बल्कि सम्पूर्ण घड़ी को सांस्कृतिक तत्व कहेंगे।


2. संस्कृति संकुल (culture complex)

जब कुछ सांस्कृतिक तत्व आपस में घुल मिलकर किसी मानवीय आवश्यकता की पूर्ति करते हैं तो उसे हम संस्कृति संकुल कहते हैं।
उदाहरण के लिए स्त्रियों के सौंदर्य संकुल को लिया जा सकता है इस संकुल के अन्तर्गत चूड़ी, कंगन, आभूषण, सिन्दूर, लिपिस्टिक, नाखूनों की लाली, बिन्दी आदि अनेक वस्तुएं आती हैं।


3. संस्कृति प्रतिमान (culture pattern)

अनेक सांस्कृतिक तत्वों के सम्मिलन से एक संस्कृति संकुल बनता है परन्तु संस्कृति के ये संकुल शून्य में रहकर कार्य नहीं करते बल्कि सम्पूर्ण सांस्कृतिक ढांचे के अन्तर्गत ही कार्य करते हैं।

ये सभी संकुल मिलकर एक संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं को भी बतलाते हैं।

सांस्कृतिक ढाॅंचे के अन्तर्गत संस्कृति संकुलों की उस व्यवस्था को जिससे की सम्पूर्ण संस्कृति की विशेषताएं व्यक्त हों संस्कृति प्रतिमान कहते हैं।
उदाहरण के लिए भारतीय संस्कृति को लिया जा सकता है इसके अन्तर्गत जातिप्रथा, संयुक्त परिवार, पंचायत, अध्यात्मवाद, गांधीवाद, धर्म का महत्व आदि सभी एक एक संस्कृति संकुल हैं। ये सभी मिलकर भारतीय संस्कृति प्रतिमान का निर्माण करते हैं।

4. सांस्कृतिक क्षेत्र (cultural area)

ऊपर के तीनों पक्षों के अलावा संस्कृति का एक भौगोलिक पक्ष भी होता है। अगर हम किसी महाद्वीप के एक किनारे से दूसरे किनारे तक यात्रा करें तो इस पायेंगे की दो अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों के सांस्कृतिक तत्वों और संस्कृति संकुलों में पर्याप्त अंतर है इसका कारण यह है कि सांस्कृतिक तत्व या संस्कृति संकुल का फैलाव एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में ही विशेष रूप से होता है।
यही भौगोलिक क्षेत्र जिसमें कि संस्कृति के एक से तत्व या संकुल विशेष रूप से पाये जाते हैं, सांस्कृतिक क्षेत्र कहलाता है।
उदाहरण के लिए जातिप्रथा भारत में ही विशेष रूप से पायी जाती है भारत के बाहर के भौगोलिक क्षेत्रों में नहीं पाई जाती। अतः भारत एक सांस्कृतिक क्षेत्र हुआ।


सभ्यता (Civilization)

Ogburn ने सम्पूर्ण संस्कृति को दो भागों में विभाजित किया है - भौतिक संस्कृति और अभौतिक संस्कृति।
MacIver and Page ने संस्कृति के इन दोनों भागों को और अधिक स्पष्ट किया है। इनके अनुसार भौतिक संस्कृति हमारी सभ्यता है जबकि अभौतिक संस्कृति हमारी संस्कृति है।
सामान्यतः सभ्यता के अन्तर्गत वे सभी वस्तुएं आ जाती हैं जिनका उपयोग करके अर्थात साधन के रूप में हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं।

MacIver and Page के अनुसार " सभ्यता से हमारा तात्पर्य उस सम्पूर्ण प्रविधि संगठन से है जिसे कि मनुष्य ने अपने जीवन की दशाओं को नियंत्रित करने के प्रयत्न में बनाया है।"

सभ्यता की विशेषताएं  (characteristics of civilization)

  1. सभ्यता में उपयोगिता का तत्व निहित है। अर्थात कोई वस्तु तब सभ्यता के अन्तर्गत आती है जब उसके द्वारा समाज के सदस्यों को कुछ न कुछ लाभ हो।
  2. सभ्यता साधन है। अर्थात हम सभ्यता के विभिन्न वस्तुओं को अपनी आवश्यकताओं के पूर्ति के लिए प्रयोग में लाते हैं।
  3. सभ्यता में शीघ्रता से परिवर्तन होता है। अर्थात आवश्यकताओं के पूर्ति के लिए साधनों की खोज में हर रोज सभ्यता के नये तत्वों का अविष्कार होता है।
  4. सभ्यता प्रगतिशील है। अर्थात सभ्यता एक स्थान से दूसरे स्थान पर सरलता से फैलती है।


संस्कृति तथा सभ्यता में पारस्परिक संबंध (relation between Culture & civilization)

वास्तव में यह कथन उचित ही है कि जो कुछ हम हैं वह हमारी संस्कृति है और जो कुछ हमारे पास है वही हमारी सभ्यता है। ऊपरी तौर पर यह कहा जा सकता है कि संस्कृति और सभ्यता में अनेक अन्तर हैं परन्तु वास्तव में अन्तर से कहीं अधिक इन दोनों में पारस्परिक संबंध है।

उदाहरण- एक किसान नया हल जोतने से पहले उसकी पूजा करता है उसी प्रकार मल्लाह नाव को नदी में तैराने से पहले नदी और नाव दोनों की पूजा करता है नाव या हल सभ्यता है जबकि पूजा संस्कृति है। परन्तु किसान या मल्लाह के इस सम्पूर्ण कार्य में संस्कृति और सभ्यता के इन तथ्यों को हम अलग-अलग नहीं कर सकते।

संस्कृति और सभ्यता का पारस्परिक संबंध निम्नलिखित विवेचना से और भी स्पष्ट हो जायेगा -
  • सभ्यता संस्कृति का वाहक है और वह इस अर्थ में कि सभ्यता के तत्व संस्कृति को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तानांतरित करने में सहायक होते हैं। उदाहरण के लिए गांधी जी के विचारों को पुस्तक में छापकर रख दिया गया है और पुस्तक के रूप में (जो कि सभ्यता का एक तत्व है) गांधी जी के विचार (जो संस्कृति का तत्व है) अनेक पीढ़ियों तक बने रहेंगे।
  • सभ्यता संस्कृति के प्रचार में मदद करती है उदाहरण के लिए यदि हम गांधी जी के अहिंसा की वाणी (संस्कृति) को दुनिया के कोने कोने में पहुंचाना चाहते हैं तो यह काम सभ्यता के विभिन्न तत्वों जैसे - यातायात के साधन, रेडियो, सिनेमा आदि द्वारा किया जा सकता है।
  • सभ्यता संस्कृति का पर्यावरण है सभ्यता में परिवर्तन होने से उसका कुछ न कुछ प्रभाव संस्कृति पर अवश्य ही पड़ता है। उदाहरण - आज मशीनों के अविष्कारों के फलस्वरूप उद्योग, धन्धे, व्यापार और सामाजिक जीवन के अन्य पक्षों में अत्यधिक गति देखने को मिलती है इसके फलस्वरूप हमारा जीवन बहुत ही व्यस्त हो गया है अतः इसी के अनुसार सांस्कृतिक तत्वों को भी अनुकूलन करना पड़ा है। जिन विवाह संस्कारों में पहले 7-8 घण्टे लगते थे अब उनका समय काफी कम हो गया है।
  • संस्कृति सभ्यता की दिशा निर्धारित करती है। हमारा जीवन तथा व्यवहार, हमारे आदर्श, मूल्यों, प्रथाओं, धर्म आदि द्वारा काफी प्रभावित होता है इसलिए इनका प्रभाव सभ्यता की दिशा निर्धारण करने में भी महत्वपूर्ण होता है। उदाहरण के लिए कारखाने में हम जीवित रहने की आवश्यक चीजें तैयार कर सकते हैं, युद्ध सामग्री तैयार कर सकते हैं, खाने पीने की चीजों का निर्माण कर सकते हैं। परन्तु हमारे कारखाने में वास्तव में क्या बनेगा या तैयार होगा। इसका निर्णय हमारी संस्कृति ही करती है।


सभ्यता तथा संस्कृति में अन्तर (difference between civilization & Culture)

  1. सभ्यता को मापा जा सकता है लेकिन संस्कृति को नहीं।
  2. सभ्यता साधन है और संस्कृति साध्य है ।
  3. सभ्यता निरन्तर आगे बढ़ती रहती है लेकिन संस्कृति नहीं। 
  4. सभ्यता को अपरिवर्तित रूप में ग्रहण करना होता है परन्तु संस्कृति में परिवर्तन किया जाता है।
  5. सभ्यता एक स्थान से दूसरे स्थान पर बिना प्रयत्न के फैलती है परन्तु संस्कृति नहीं ।